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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश बंधण संकमणुव्वट्टणा य अववट्टणा उदीरणया। उवसामणा निहत्ती निकायणा च त्ति करणाई। (क प्र२) कर्मविषयं करणं-जीववीर्यं बन्धनसंक्रमणादिनिमित्तभूतं कर्मकरणम्। (भग ६.५ वृ) कर्मक शरीर (प्रज्ञा २३.४१) (द्र कार्मण शरीर) कर्मकशरीरबंधननाम नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से गृहीत और गृह्यमाण कर्मपुद्गलों का परस्पर संबंध स्थापित होता है। यदुदयात् कार्मणपुद्गलानां गृहीतानां गृह्यमाणानां च परस्परं संबन्धस्तत्कार्मणबन्धननाम। (प्रज्ञा २३.४३ वृप ४७०) करण सत्य निर्दिष्ट क्रिया के प्रति दत्तचित्तता, जो कार्य करने का सामर्थ्य बढ़ाती है और उससे मुनि यथावादी तथाकारी होता है। करणसच्चेणं करणसत्तिं जणयइ। करणसच्चे वट्टमाणे जीवे जहावाई तहाकारी यावि भवइ। (उ २९.५२) करणे सत्यं करणसत्यं यत्प्रतिलेखनादिक्रियां यथोक्तां सम्यगुपयुक्तः कुरुते, तेन करणशक्तिं तन्माहात्म्यात् पुराऽनध्यवसितक्रियासामर्थ्यरूपां जनयति। (उ २९.५२ शावृ प ५९१) करणानुयोग द्रव्यानुयोग का एक प्रकार। एक द्रव्य की निष्पत्ति में प्रयुक्त होने वाले साधनों का विचार। करणाणुओगो त्ति क्रियते एभिरिति करणानि तेषामनुयोगः करणानुयोगः। तथाहि-जीवद्रव्यस्य कर्तुर्विचित्रक्रियासु साधकतमानि कालस्वभावनियतिपूर्वकृतानि नैकाकी जीवः । किञ्चन कर्तुमलमिति, मृद्रव्यं वा कुलालचक्रचीवरदण्डादिकं करणकलापमन्तरेण न घटलक्षणं कार्यं प्रति घटत इति तस्य तानि करणानीति द्रव्यस्य करणानुयोगः।। (स्था १०.४६ वृ प ४५६) करिष्यति दान अमुक आगे सहयोग करेगा, इस बुद्धि से जो दिया जाता है, वह दान। करिष्यति कञ्चनोपकारं ममायमितिबुद्धया यद्दानं तत्करिष्यतीति दानमुच्यते। (स्था १०.९७ वृ प ४७१) कर्म १. आत्मा की प्रवृत्ति के द्वारा आकृष्ट होने वाले पुद्गलस्कंध, जो कर्म रूप में परिणत होने योग्य हैं। आत्मप्रवृत्त्याकृष्टास्तत्प्रायोग्यपुद्गला: कर्म। (जैसिदी ४.१) २. उत्क्षेपण आदि क्रियाएं। कर्म-उत्क्षेपणापक्षेपणादि। (भग १.१४६ वृ) कर्मचेतना इष्ट और अनिष्ट विकल्प से राग-द्वेष में परिणत होने वाली चेतना। स्वेहापूर्वेष्टानिष्टविकल्परूपेण विशेषरागद्वेषपरिणमनं कर्मचेतना। (बृद्रसं वृ पृ ३९) कर्मजा बुद्धि अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान का एक प्रकार। अभ्यास से उत्पन्न होने वाली बुद्धि। उपयोग (दत्तचित्तता) के द्वारा कर्म के रहस्य को देखने वाली बुद्धि। उवओगदिट्ठसारा, कम्मपसंगपरिघोलणविसाला। साहुक्कारफलवई, कम्मसमुत्था हवइ बुद्धी॥ (नन्दी ३८.८) कर्मनिषेक अनुभवयोग्य-अबाधाकाल को छोड़कर शेष कर्म-स्थिति। यह निषेककालीन अवस्था है। अबाधोना-अबाधाकालपरिहीना अनुभवयोग्या कर्मस्थिति:'"-कर्मनिषेकः। (प्रज्ञा २३.६० ७ प ४७९) कर्मकरण बंधन, संक्रमण उद्वर्तना, अपवर्त्तना, उदीरणा, उपशम, निधत्ति । और निकाचना-कर्म की इन आठ अवस्थाओं के घटित होने में निमित्त बनने वाला जीव का वीर्य । कर्मपरिग्रह जीव के द्वारा कृत और संगृहीत कर्मपुद्गल। तिविहे परिग्गहे पण्णत्ते, तं जहा-कम्मपरिग्गहे, सरीरपरिग्गहे, बाहिरगभंडमत्तोवगरणपरिग्गहे। (भग १८.१२३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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