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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश उपस्थापना अन्तेवासी वह शिष्य, जो केवल उपस्थापना की दृष्टि से आचार्य के पास रहता है। उपस्थापनान्तेवासी महाव्रतारोपणतः शिष्य इति। (स्था ४.४२४ वृ) उपासकदशाधर वह मुनि, जो उपासकदशाङ्ग के सूत्रपाठ और अर्थ का विशेषज्ञ होता है। उपाङ्ग औपपातिक, राजप्रश्नीय आदि बारह अंगबाह्य आगम, जो श्रुतपुरुष के उपांगभूत हैं। अर्थतोऽङ्गस्य समीपभावेनेदमुपाङ्गम्। (औपवृ पृ१) । उपाङ्गान्यौपपातिकप्रभृतीन्यङ्गार्थानुवादीनि। (तभा ६.१४ वृ पृ २७) (द्र अङ्ग, निरयावलिका) उपासकप्रतिमा उपासक (श्रावक) द्वारा किया जाने वाला साधना का विशेष प्रयोग, जो राजाभियोग आदि आकारों (अपवादों) से मुक्त होता है। इसका कालमान साढे पांच वर्ष का होता है। उपासका:-श्रावकास्तेषां प्रतिमा:-प्रतिज्ञाः अभिग्रह-रूपाः उपासकप्रतिमाः। (सम ११.१ वृ प १९) एकमासं प्रथमाया: प्रतिमायाः पालनेन द्वौ मासौ द्वितीयायाः प्रतिमायाः पालनेन एवं यावदेकादश मासानेकादश्याः पालनेन पञ्च सार्धानि वर्षाण्यर्थतः प्रतिपादितानीति। (प्रसावृ प २९४) उपेक्षा असंयम असंयम का एक प्रकार। आत्मसंयम की उपेक्षा अथवा असंयम में निरत होना। उपेक्षाऽसंयमोऽसंयमयोगेषु व्यापारणं संयमयोगेष्वव्यापारणं वा। (सम १७.१ वृ प ३२) उपाध्याय धर्मसंघ में सात पदों में से एक पद। सूत्र और अर्थ की विधि का पारगामी, आचार्य-पद के योग्य और सूत्र का अध्यापन करने वाला। .....आयरिए वा उवज्झाए वा पवत्ती वा थेरे वागणी य गणहरे वा गणावच्छेइए वा। (आचूला १.१३०) उपाध्याय: अध्यापकः। (आवृ प २३६) सम्मत्तनाणसंजमजुत्तो सुत्तत्थतदुभयविहिनू। आयरियठाणजोगो सुत्तं वाए उवज्झाओ॥ (प्रसा १०२ वृ प २४) उपानद् अनाचार का एक प्रकार। पैरों में जूते पहनना, जो मुनि के लिए अनाचरणीय है। उवाहणा पादत्राणम्। (द ३.४ अचू पृ६१) उभयधर वह मुनि, जो सूत्र और अर्थ दोनों का धारक होता है। पाठकः, अर्थधरो बोद्धा अन्यस्तूभयधरः। (स्थावृप १८६) उभयबन्धिनी वह कर्म-प्रकृति, जिसका बंध उसके उदय-काल और अनुदय-काल दोनों में होता है, जैसे-निद्रा, निद्रा-निद्रा आदि। उभयस्मिन्नुदयेऽनुदये वा बन्धो यासां ताः उभयबंधिन्यः। (कप्र पृ ४०) उष्णतेजोलेश्या निग्रह करने वाली तेजोलेश्या। तैजसमुष्णगुणं शापानुग्रहसामर्थ्याविर्भावनं तदेव यदोत्तरगुणप्रत्यया लब्धिरुत्पन्ना भवति तदा परं प्रति दाहाय विसृजति। (तभा २.३७ ७) (द्र तेजालश्या) उपासक (भग ५.९६) (द्र श्रमणोपासक) उपासकदशा द्वादशाङ्ग श्रुत का सातवां अङ्ग, जिसमें भगवान महावीर के दस प्रमुख श्रावकों के जीवन का वर्णन है। उवासगदसास णं उवासयाणं नगराई.......... आघविज्जति। (समप्र ९५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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