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________________ ७४ जैन पारिभाषिक शब्दकोश उष्ण परीषह गर्मी से उत्पन्न वेदना, जो मुनि के द्वारा समभावपूर्वक सहनीय । उसिणपरियावेणं परिदाहेण तज्जिए। प्रिंसु वा परियावेणं सायं नो परिदेवए। उण्हाहितत्ते मेहावी सिणाणं नो वि पत्थए। गायं नो परिसिंचेज्जा न वीएज्जा य अप्पयं। (उ२.८,९) ऊर्ध्वदिशाप्रमाणातिक्रम दिग्व्रत का एक अतिचार। ऊर्ध्वदिशा में जाने के नियत प्रमाण का अनजान में अथवा किसी अन्य कारणवश अतिक्रमण करना। उड्ढदिसिपमाणाइक्कमे एते चोर्ध्वदिगाद्यतिक्रमा अनाभोगादिनाऽतिचारतयाऽवसेयाः। (उपा १.३७ वृ पृ१४) ऊर्ध्वलोक तिर्यग् लोक के ऊपर का भाग, जो कुछ कम सात रज्जुप्रमाण (देखें चित्र पृ ३४१) "तियग्लोकस्ततः परत ऊर्ध्वभागस्थितत्वात् ऊर्ध्वलोको देशोनसप्तरज्जुप्रमाणः।" उड़े उवरिं जं ठिय, सुहरवेत्तं खेत्तओ य दव्वगुणा। उप्पजंति सुभा वा तेण तओ उड़लोगो ति॥ (स्था ३.१४२ वृ प १२१) ऊर्ध्वव्यतिक्रम (तसू ७.२५) (द्र ऊर्ध्वदिशाप्रमाणातिक्रम) उष्ण योनि वह उत्पत्ति-स्थान, जो उष्ण होता है। शीता शिशिरा। तद्विपरीतोष्णा। उभयस्वभावा मिश्रा। (तभा २.३३ वृ) है। ऊनातिरिक्तमिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया मिथ्या-दर्शनप्रत्यया क्रिया का एक प्रकार, जिसमें तत्त्व के स्वरूप का न्यून या अधिक स्वीकार हो, जैसे-शरीरव्यापी आत्मा को अंगुष्ठप्रमाण या सर्वव्यापी स्वीकार करना। ऊनं स्वप्रमाणाधीनमतिरिक्तं-ततोऽधिकमात्मादि वस्त तद्विषयं मिथ्यादर्शनमूनातिरिक्तमिथ्यादर्शनं तदेव प्रत्ययो यस्याः सा ऊनातिरिक्तमिथ्यादर्शनप्रत्यया। (स्था २.१९ वृ प ३९) ऊह (प्रमी १.२.५) (द्र तर्क) ऊनोदरिका (उ ३०.८) (द्र अवमोदरिका) ऊर्ध्वता सामान्य पूर्व और अपर अवस्थाओं में होने वाली एकरूपता, जैसेघट आदि का आकार बदल जाने पर भी मृत्तिका अनुगत । रहती है। पूर्वापरपरिणाममसाधारणं द्रव्यमूर्ध्वतासामान्यम्। ऊर्ध्वतादिसामान्यं पूर्वापरगुणोदयम्। पिंडस्थादिकसंस्थानानुगता मृद्यथा स्थिता॥ (द्रत १.४) (द्र तिर्यग्सामान्य) ऋजुआयता श्रेणि आकाशश्रेणि का एक प्रकार। आकाश-प्रदेशों की वह पंक्ति (श्रेणि), जो सीधी और लंबी हो। जब जीव और पुद्गल ऊंचे लोक से नीचे लोक में अथवा नीचे लोक से ऊंचे लोक में जाते हुए सम-रेखा (समश्रेणी) में गति करते हैं, कोई घुमाव नहीं लेते, वह ऋजुआयता श्रेणि कहलाती है। इस गति में केवल एक समय लगता है। (देखें चित्र पृ ३४१) 'उज्जुयायत' त्ति ऋजुश्चासावायता चेति ऋज्वायता यया जीवादय ऊर्ध्वलोकादेरधोलोकादौ ऋजतया यान्तीति। (भग २५.९१ वृ प ८६५) 'उज्जुआययाए' त्ति यदा मरणस्थानापेक्षयोत्पत्तिस्थानं समश्रेण्यां भवति तदा ऋज्वायता श्रेणिर्भवति। (भग ३४.२ वृ प ९५६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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