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________________ ७२ जैन पारिभाषिक शब्दकोश उदयोदीरणानिधत्तिनिकाचनाऽयोग्यत्वम् उपशमः। (जैसिदी ४.५ ) उपशम श्रेणी अध्यात्म विकास की वह श्रेणी, जिसमें मोहकर्म को उपशान्त किया जाता है, जो आठवें से ग्यारहवें गणस्थान तक होती (तवा ९.१.१८) (द्र क्षपकश्रेणी) साकारानाकारभेदस्तत्प्रधान आत्मा उपयोगात्मा। (भग १२.२०० वृ) उपयोग इन्द्रिय भावेन्द्रिय का एक प्रकार। अर्थ (इन्द्रियविषय) को ग्रहण करने वाला चेतना का व्यापार। जो सविसयवावारो सो उवओगो। (विभा २९९८) उपरमअनित्यता वह अनित्यता, जिसका अत्यन्ताभाव नहीं होता, जैसे-पुनर्जन्म। उपरमानित्यता तु भवोच्छेदवदपास्तगतिचतुष्टयपरिभ्रमक्रियाक्रमपर्यन्तवर्तिनी परिप्राप्तावस्थानविशेषरूपा, नात्यन्ताभावभाविनीति। (तभा ५.४ वृ) उपरौद्र परमाधार्मिक देवों का एक प्रकार । पापकर्म में रत वे असर देव, जो नैरयिकों के अंगोंपांगों को भिन्न करते हैं। उनके बाहू, सिर, हाथ और पैरों को कैंची से काटते हैं। भंजंति अंगमंगाणि, बाहसिराणि कर-चरणे। कप्पंति कप्पणीहिं, उवरुद्दा पावकम्मरया।। (सूत्रनि ७३) उपशान्त वह व्यक्ति, जिसका मोह उदय अवस्था में नहीं होता। उपशान्तः-अनुदयावस्थः। (प्रज्ञावृ प २९१) उपशान्तमोह जीवस्थान/गुणस्थान का ग्यारहवां प्रकार । मोहकर्म के सर्वथा उपशम से होने वाली जीव की आत्मविशुद्धि। उपशान्तः सर्वथानुदयावस्थो मोहः। (सम १४.५ वृ प २७) उपसम्पदा आलोचना उपसम्पदा हेतु उपस्थित मुनि द्वारा की जाने वाली आलोचना। (निभा ६३१० चू) उपसम्पदा सामाचारी ज्ञान आदि की उपलब्धि के लिए दूसरे गण के आचार्य आदि की सन्निधि में रहना, उनका मर्यादित काल तक शिष्यत्व स्वीकार करना। आचार्यान्तरादिसन्निधौ अवस्थाने उप-सामीप्येन सम्पादनं गमन""उपसम्पद्-इयन्तं कालं भवदन्तिके मयाऽऽसितव्यमित्येवंरूपा। (उ २६.७ शावृ प५३५) उपवास १. शब्द आदि पांच इन्द्रिय-विषयों के प्रति उत्सकता की निवृत्ति करना। २. अशन, पान, भक्ष्य और लेह्य-इस चतुर्विध आहार का त्याग करना। शब्दादिग्रहणं प्रति निवृत्तौत्सुक्यानि पञ्चापीन्द्रियाणि उपेत्य तस्मिन् वसन्तीत्युपवासः।अशनपानभक्ष्यलेह्यलक्षणचतुर्विधाहारपरित्याग इत्यर्थः। (तवा ७.२१) (द्र अभक्तार्थ) उपशम कर्मकरण का एक प्रकार। मोहनीय कर्म के विपाकोदय और प्रदेशोदय को रोकना, उसे उदय, उदीरणा, निधत्ति और निकाचना के अयोग्य बना देना। मोहकर्मणो वेद्याभाव उपशमः। (जैसिदी २.४६) विपाकप्रदेशानुभवरूपतया द्विभेदस्याप्यदयस्य विष्कम्भणमुपशमस्तेन निवृत्त औपशमिकः। (उशावृ प ३३) उपसम्पद्यमानगति किसी एक व्यक्ति के नेतृत्व में होने वाली गति (यात्रा)। उपसम्पद्यमानगतिर्यदन्यमुपसम्पद्य-आश्रित्य तदवष्टम्भेन गमनम्। (प्रज्ञा १६.४१ वृ प ३२९) उवसंपज्जमाणगती-जण्णं रायं वा"सेणावइंवा सत्थवाहं वा उवसंपज्जित्ता णं गच्छति। (प्रज्ञा १६.४१) उपस्थापनाचार्य वह आचार्य, जो शिष्य को महाव्रतों में उपस्थापित करता है। (स्था ४.४२२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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