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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश ६९ उद्योतनाम नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव का शरीर शीतल प्रकाश देने वाला होता है। यदुदयाजन्तुशरीराण्यनुष्णप्रकाशकरूपमुद्योतं कुर्वन्ति यथा यतिदेवोत्तरवैक्रियचन्द्रनक्षत्रतारविमानरत्नौषधयस्तदुद्योतनाम। (प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४७४) उपकरण असंवर (आस्रव) अकल्पनीय उपकरणों का स्वीकार अथवा गृहीत उपकरणों को अयतनापूर्वक रखना। (स्था १०.११) (द्र उपकरणसंवर) उपकरणइन्द्रिय द्रव्येन्द्रिय का एक प्रकार । वह पौदगलिक शक्ति, जो इन्द्रियों के विषयग्रहण में साधकतम बनती है। विसयग्गहणसमत्थं उवगरणं इंदियंतरं तं पि। जं नेह तदुवधाए गिण्हइ निव्वत्तिभावे वि॥ (विभा २९९६) उद्वर्तना १. कर्मकरण का एक प्रकार। कर्म की स्थिति और अनुभाग में वृद्धि। कर्मणां स्थित्यनुभागवृद्धिः उद्वर्तना। (जैसिदी ४.५७) २. नारकीय जीव और भवनपति देव मरण के बाद अधोलोक से ऊपर आते हैं, अत: उनका मरण उद्वर्तन कहलाता है। उद्वर्त्तनमुद्वर्त्तना तत्कायान्निर्गमो मरणमित्यर्थः, तच्च नैरयिकभवनवासिनामेवैवं व्यपदिश्यते। (स्था २.२५१ वृ प ६२) उन्नामिनी वह विद्या, जिसके प्रयोग से वृक्ष की एं ऊपर हो जाती उपकरण बकुश बकुश निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। वह मुनि, जो वस्त्र, पात्र आदि उपकरणों की विभूषा में प्रवृत्त रहता है। वस्त्रपात्राद्युपकरणविभूषानुवर्तनशील उपकरणबकुशः। (भग २५.२७८ वृ) उण्णामिणीए विज्जाए डालाउणामिया अंबगाणिगहियाणि पुणोवि उन्नामिणीए उन्नामिया। (व्यभा ६३ वृ प २४) उपकरण संवर अकल्पनीय वस्त्र आदि का अस्वीकार अथवा बिखरे हए उपकरणों को यतनापूर्वक सुव्यवस्थित करना। अप्रतिनियताकल्पनीयवस्त्राद्यग्रहणरूपोऽथवा विप्रकीर्णस्य वस्त्राद्युपकरणस्य संवरणमुपकरणसंवरः ।...."संवरविपरीतोऽसंवरः। (स्था १०.१० वृ प ४४८) उन्माद १. यक्ष के आवेश से होने वाला चित्तविभ्रम । २. मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला चित्तविभ्रम। दुविहे उम्माए पण्णत्ते, तं जहा-जक्खाएसे चेव, मोहणिज्जस्स चेव कम्मस्स उदएणं। (स्था २.७५) उपकरणोत्पादक वह मुनि, जो साधु-साध्वियों के लिए धर्मोपकरण की गवेषणा और याचना करता है। (व्यभा १९४३) उन्मान विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण, जिससे वजन तोला जाए। उम्माणे-जण्णं उम्मिणिज्जड़। (अनु ३७८) उपक्रम व्याख्या (अनुयोग)का पहला द्वार । उपोद्घात, इससे शास्त्र के अभिधान, प्रतिपाद्य, विभाग, प्रकरण आदि की प्रारंभिक जानकारी प्राप्त होती है। उपक्रमणमुपक्रम इति भावसाधनः, शास्त्रस्य न्यासदेशसमीपीकरणलक्षणः, उपक्रम्यते वाऽनेन गुरुवागयोगेनेत्युपक्रम इति करणसाधनः। (अनु ७५ हावृ पृ २७) उन्मिश्र एषणादोष का एक प्रकार । सचित्त-अचित्त मिला हआ आहार आदि लेना। देयद्रव्यं खण्डादि सचित्तेन धान्यकणादिना मिश्रं ददत उन्मिश्रम्। (योशा १.३८ वृ पृ१३७) उपग्रहकुशल वह मुनि, जो बाल, वृद्ध, ग्लान आदि मुनियों को आहार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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