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________________ ५६ पुनः सेवन करने पर विजातीय प्रायश्चित्त का आरोपण किया जाता है। यह आरोपणा षाण्मासिक प्रायश्चित्त तक की जा सकती है। आरोप्यते इति आरोपणा प्रायश्चित्तानामुपर्युपर्यारोपणम् । (व्यभा ३६ वृ) एकापराधप्रायश्चित्ते पुनः पुनरासेवनेन विजातीयप्रायश्चित्ताध्यारोपणमारोपणा । (स्था ४.१३३ वृप २०० ) वीसे दाणाऽऽरोवण, मासादी जाव छम्मासा । (निभा ६२७२) आर्जव योगसंग्रह का एक प्रकार । सरलता, वह भाव, जो माया से मुक्त है 'अज्जवे' त्ति आर्जव: - ऋजुभावः । (सम ३२.१.२ वृ प ५५) आर्जव धर्म श्रमण धर्म अथवा उत्तम धर्म का एक प्रकार । १. शरीर, वचन और मन की अवक्रता । योगस्यावक्रता आर्जवम् । ( तवा ९. ७. ४) २. भावविशुद्धता और अविसंवादन - कषायवश अयथार्थ तत्त्व का निरूपण नहीं करना । भावविशुद्धिरविसंवादनं चार्जवलक्षणम् । (तभा ९.६.३) आर्त्तगवेषणता लोकोपचार विनय का एक प्रकार। रोगी के लिए औषध आदि की गवेषणा करना । आर्त्तस्य 'दुःखार्त्तस्य गवेषणं औषधादेरित्यातगवेषणं तदेवार्त्तगवेषणतेति, पीडितस्योपकार इत्यर्थः । (स्था ७.१३७ वृ प ३८८ ) आर्त्तध्यान ध्यान का एक प्रकार । प्रिय का वियोग और अप्रिय का संयोग होने पर होने वाला संक्लेशपूर्ण चिन्तन । प्रियाप्रियवियोगसंयोगे चिन्तनमार्त्तम् । (जैसिदी ६.४६ ) आर्या वह साध्वी, जो संयम, महाव्रत की साधना करती है । 'आर्या' संयत्यः । (बृभा ४१२० वृ) Jain Education International जैन पारिभाषिक शब्दकोश आलोकभाजनभोजन अहिंसा महाव्रत की एक भावना। जिस पात्र का मुंह चौड़ा हो, जिसमें खाद्य वस्तु दिखाई देती हो, उस पात्र में भोजन करना । आलोकभाजनभोजनं - आलोकनपूर्वं भाजने - पात्रे भोजनं भक्तादेरभ्यवहरणम्, अनालोक्यभाजनभोजने हि प्राणिहिंसा सम्भवति । (सम २५.१.४ वृ प ४३ ) आलोचना दशविध प्रायश्चित्त का पहला प्रकार। गुरु को सूचित किए बिना परस्पर वाचना, परिवर्तना करने पर तथा वस्त्र आदि का आदान-प्रदान करने पर गुरु को निवेदन करना । परोप्परस्स वायणपरियदृणवत्थदाणादिए अणालोतिए गुरूणं अविणओ त्ति आलोयणारिहं । (आवचू २ पृ २४६) आवर्जीकरण कर्म-स्कन्धों को उदीरणावलिका में प्रक्षिप्त करने का प्रयत्न । आवर्जीकरणम् - उदीरणावलिकायां कर्मप्रक्षेपव्यापाररूपम् । (औप १७३ वृ पृ २०८ ) (द्र उदयावलिका प्राप्त ) आवर्त्तन अवाय की पहली अवस्था, जिसमें ईहा का कार्य सम्पन्न होने पर अर्थ के स्वरूप का बोध होता है। भावनियत्तस्स अत्थसरूवपडिबोधबुद्धस्स य परिच्छेदमुपादतस्स आउट्टता भण्णति । (नन्दी ४७ चू पृ ३६) आवलिका १. परम्परा से प्राप्त श्रुत की उपसम्पदा । या सा श्रुतोपसम्पत् परम्पराप्ता आवलिका ज्ञातव्या । (व्यभा ३९८० वृ) २. असंख्य समयों का समुदय । १६७७७२१६ आवलिका का एक मुहूर्त ( ४८ मिनिट) होता है । जघन्य- युक्त असंख्यात के तुल्य एक आवलिका की समयराशि है। असंखेज्जाणं समयाणं समुदय समिति-समागमेणं सा एगा आवलिया । ( अनु ४१७) ......जहण्णयं जुत्तासंखेज्जयं होइ । आवलिया वि तत्तिया चेव । (अनु ५९०) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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