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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश ५७ आयः-सम्यग्दर्शनाद्यवाप्तिलक्षणस्तस्य शातनाः-खण्डनं निरुक्तादाशातनाः। (सम ३३.१ वृ प५६) आशीविष लब्धि का एक प्रकार। शाप के द्वारा अनिष्ट करने वाली योगज विभूति। एते हि तपश्चरणानुष्ठानतोऽन्यतो वा गुणत आशीविषवृश्चिक भुजङ्गादिसाध्यकर्मक्रियां कुर्वन्ति-शापप्रदानादिना परं व्यापादयन्तीत्यर्थः। (विभा ७८० वृ पृ ३२३) ३. सौधर्म आदि कल्पों का विमान। (द्र क्षुल्लिकाविमानप्रविभक्ति) आवश्यक मण्डली मण्डली का एक विभाग, जिसकी व्यवस्था के अनुसार श्रमण गुरु की सन्निधि में आवश्यक (सामूहिक प्रतिक्रमण) करते हैं। (प्रसा ६९२ वृप १९६) (द्र मण्डली) आवश्यक सूत्र वह आगम, जिसमें दोनों संध्याओं में की जाने वाली छः आवश्यक क्रियाओं की विधि है। (नन्दी ७५) (द्र षडावश्यक) आवश्यकी सामाचारी स्थान से बाहर जाते समय आवश्यकी' का उच्चारण करना। गमणे आवस्सियं कुज्जा। (उ २६.५) आवारक कर्म वह कर्म, जो ज्ञान और दर्शन को आवृत करता है, जैसेज्ञानावरण, दर्शनावरण। तत् कर्म ज्ञानदर्शनयोरावरणस्य हेतु भवति। (जैसिदी ४.२ वृ) आवीचि मरण मरण का एक प्रकार। प्रतिक्षण आयु के क्षय से होने वाला मरण। आवीचिमरणं-प्रतिक्षणमायुर्द्रव्यविचटनलक्षणम्। (सम १७.९ वृ प ३२) आवृतवीर्य वह वीर्य, जो कर्म के द्वारा आच्छादित है। (कप्र पृ५३) आशातना सम्यक्त्व, ज्ञान आदि की उपलब्धि में बाधा अथवा न्यूनता उत्पन्न करने वाली अवज्ञापूर्ण प्रवृत्ति। आसातणा णामं नाणादिआयस्स सातणा। (आवचू २ पृ २१२) सम्यक्त्वादिलाभं शातयति विनाशयतीत्याशातना। (उशावृ प ५७९) आशुप्रज्ञ १. वह व्यक्ति, जिसे प्रश्न करने पर प्रष्टव्य विषय का चिन्तन नहीं करना पड़ता, तत्काल सब कुछ समझ लेता है, जैसे-केवली, तीर्थंकर। आसुपण्णे त्ति न पुच्छितो चिंतेति, आशु एव प्रजानीते आशुप्रज्ञः। __ (सूत्र १.५.२ चू पृ १२६) ..."आसुप्रज्ञो, केवली तीर्थंकर एव। (सूत्र १.५.२ चू पृ ४०३) २. क्षिप्रप्रज्ञ, जो प्रतिबुद्ध-प्रतिक्षण जागरूक रहता है। आशुप्रज्ञ इति क्षिप्रप्रज्ञः क्षणलवमुहूर्तप्रतिबुद्ध्यमानता। (सू १.१४.४ चू पृ २२९) आश्रव नौ तत्त्वों में एक तत्त्व। आत्मा की वह अवस्था, जो कर्मों के आकर्षण का हेतु बनती है। कर्माकर्षणहेतुरात्मपरिणाम आश्रवः। ..."आश्रवन्ति-प्रविशन्ति कर्माणि आत्मनि येन परिणामेन स आश्रवः कर्मबन्धहेतुरिति भावः। (जैसिदी ४.१६ वृ) आश्रव अनुप्रेक्षा सातवीं अनुप्रेक्षा । आश्रव के स्वरूप तथा उससे होने वाले दोषों के बारे में पुनः-पुनः अनुचिन्तन करना। आश्रवानिहामुत्रापाययुक्तान्"चिन्तयेत्। (तभा ९.७) आश्रवद्वार ..."आश्रवः, कर्मप्रवेश इति भावः। तस्य द्वाराणि-उपायाः आश्रवद्वाराणि-कर्मबन्धहेतूनि इति। (जैसिदी ४.१६व) (द्र आश्रव) आश्वास श्रमणोपासक के चार विश्राम। धर्माराधना करने वाला गृहस्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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