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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश तिर्यञ्चयोनिक जीवों के होता है। आरम्भ दोण्हं आउय-संवट्टए पण्णत्ते, तं जहा-मणुस्साणं चेव, पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं चेव। जीव-वध की प्रवृत्ति। (स्था २.२६७) प्राणिवधः आरम्भः॥ (तभा ६.९) आयुष्मन् आरम्भक्रिया शिष्य के लिए प्रयुक्त होने वाला मंगलसूचक आमन्त्रण। आयुष्मन्नित्यनेन शिष्यस्यामन्त्रणम्। क्रिया का एक प्रकार। छेदन-भेदन, हिंसा आदि क्रियाओं में तत्पर होना अथवा अन्य के द्वारा हिंसा आदि व्यापार किये (द ४.१ जिचू पृ १३०) जाने पर हर्षित होना। आयुष्यकर्म छेदनभेदनवित्रंसनादिक्रियापरत्वम, अन्येन चारम्भे क्रियमाणे वह कर्म, जिसके उदय से जीव भवस्थिति को प्राप्त होता प्रहर्ष आरम्भक्रिया। (तवा ६.५.११) है-नरक आदि अवस्थाओं को जीता है और इसके क्षय से आरम्भ प्रतिमा जीव मृत कहलाता है। एति भवस्थितिं जीवो येन इति आयुः। (जैसिदी ४.३ वृ) उपासक-प्रतिमा का आठवां प्रकार, जिसमें प्रतिमाधारी उपासक पृथ्वी आदि जीवों का स्वयं आरंभ-हिंसा नहीं करता। आ समन्तादेति-गच्छति भवाद् भवान्तरसङ्क्रान्तौ विपाकोदयमित्यायुः। (प्रज्ञावृ प ४५४) आरंभसयंकरणं अट्ठमिया अट्ठ मास वजेइ। (प्रसा ९९०) यस्योदयात् प्रायोग्यप्रकृतिविशेषानुशायीभूत आत्मा नारका- आरम्भनिश्रित दिभावेन जीवति यस्य च क्षयान्मृत उच्यते तदायुः। वह व्यक्ति, जो हिंसायुक्त व्यापार में आसक्त होता है। (तभा ८.११ वृ) आरम्भे-प्राण्युपमर्दनकारिणि व्यापारेनि:श्रिता-आसक्ताः आयुष्य प्राण संबद्धा अध्युपपन्नाः। (सूत्र १.१.१० वृ प २०) वह प्राण, जो जीवन को बनाए रखने की शक्ति के लिए आराधक उत्तरदायी है। (प्रसा १०६६) लक्ष्य-सिद्धि के लिए सम्यक् साधना करने वाला। आयोजिका क्रिया (स्था ४.४२६) आलोयणपरिणतो, सम्मं संपट्ठितो गुरुसगासे। वह क्रिया, जिसके द्वारा जीव अशुभ कर्म से बंधता है, जदि अंतरा उकालं करेज्ज आराहओ तहऽवि॥ जन्म-मरण के चक्र में परिभ्रमण करता है। (निभा ६३१२) आयोजयन्ति जीवं संसारे इत्यायोजिकाः। (द्र आराधना) (प्रज्ञा २२.५७ वृ प ४४५) आराधना आरण लक्ष्य-सिद्धि के लिए की जाने वाली सम्यक साधना। ग्यारहवां स्वर्ग। कल्पोपपन्न वैमानिक देवों की ग्यारहवीं 'आराहण'त्ति आराधना-निरतिचारतयाऽनुपालना। आवासभूमि। (उ ३६.२११) (भग ८.४५१७) (देखें चित्र पृ ३४६) आरभटा आरोपणा प्रायश्चित्त प्रतिलेखना का एक दोष । विधि से विपरीत प्रतिलेखन करना चतुर्विध प्रायश्चित्त का तीसरा प्रकार। एक प्रमाद का अथवा एक वस्त्र का पूरा प्रतिलेखन किए बिना आकुलता प्रायश्चित्त हुआ, दूसरा प्रमाद, उसका प्रायश्चित्त हुआ-इस से दूसरे वस्त्र को ग्रहण करना। प्रकार आगे से आगे होने वाला प्रायश्चित्त । एक दोष का आरभटा विपरीतकरणमुच्यते त्वरितं वाऽन्यान्यवस्त्रग्रहणे प्रायश्चित्त चल रहा हो, उस बीच में ही उस दोष को पुनः नासौ भवति। (उ २६.२६ शाव प५४१) Pivate & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Educatio international
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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