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________________ ५४ जैन पारिभाषिक शब्दकोश आभिनिबोधिकज्ञानस्यावरणीयं आभिनिबोधिकज्ञाना- शरीरोपकरणभूषयोः सञ्चिन्त्यकारी आभोगबकुशः। वरणीयम्। (प्रज्ञा २३.२५ वृ प ४६७) (स्था ५.१८७ वृ प ३२०) आभिनिवेशिक आभ्यन्तर तप मिथ्यात्व का एक प्रकार । वह दृष्टिकोण, जिसके द्वारा सत् कर्म शरीर (सूक्ष्म शरीर) को प्रभावित करने वाला तप, चित्त तत्त्व को जान लेने पर भी असत तत्त्व का अभिनिवेश बना निरोध की प्रधानता के कारण कर्मक्षय का अंतरंग कारण। रहता है। आभ्यन्तरं-चित्तनिरोधप्राधान्येन कर्मक्षपणहेतत्वात्। आभिनिवेशिकं जानतोऽपि यथास्थितं वस्तु दुरभिनिवेश (सम ६.४ वृ प १२) लेशविप्लावितधियो जमालेरिव भवति। (योशा २.३ पृ १६५) आभ्युपगमिकी वेदना स्वेच्छा से स्वीकृत तपश्चर्या से होने वाली वेदना। आभियोगिक देव आभ्युपगमिकी नाम या स्वयमभ्युपगम्यते। वह कल्पोपपन्न देव, जो प्रेष्य कर्म में नियुक्त होता है। (प्रज्ञा ३५.१२ वृ प ५५७) अभियोगः-प्रेष्यकर्मसु व्यापार्यमाणत्वम्-अभियोगेन जीवन्ति (द्र औपक्रमिकी वेदना) इति आभियोगिकाः। (रा १० वृ प५२) आमन्त्रणी आभियोगी भावना असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा का एक प्रकार। आमंत्रण के संक्लिष्ट भावना का एक प्रकार । सुख आदि से भावित चित्त लिए प्रयुक्त की जाने वाली भाषा, जैसे-हे देवदत्त ! वाले व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला मंत्र आदि का प्रयोग। असत्यामृषा...."आमंतणि' इति तत्र आमन्त्रणी हे देवदत्त! मंताजोगं काउं भूईकम्मं च जे पउंजंति। इत्यादि। (प्रज्ञा ११.३७ वृप २५९) सायरसइडिहेडं अभिओगं भावणं कुणइ॥ (उ ३६. २६४) आम\षधि लब्धि का एक प्रकार । हाथ आदि के स्पर्श मात्र से रोग दूर आभोग करने वाली योगज विभूति। ईहा की पहली अवस्था, जिसमें विशेष अर्थाभिमुख आलोचन करादिसंस्पर्शमात्रादेव व्याध्यपनयनसमर्थो लब्धिः। प्रारम्भ हो जाता है। (विभा ७७९ ७) ओग्गहसमयाणंतरं सब्भूतविसेसत्थाभिमुहमालोयणं आभोयणता भण्णति। (नन्दी ४५ चू पृ ३६) आम्नायार्थवाचक वह आचार्य, जो आम्नाय-आगम के गूढ रहस्यमय अर्थों आभोगनिर्वर्तित एवं उत्सर्ग-अपवादविधियों का प्रतिपादन करता है। कषाय के विपाक का ज्ञान होने पर भी प्रयोजन वश किया आम्नाय-आगमस्तस्योत्सर्गापवादलक्षणोऽर्थस्तं वक्तीजाने वाला आवेश। त्याम्नायार्थवाचकः, पारमर्षप्रवचनार्थकथनेनानग्राहकोऽक्षयदा परस्यापराधं सम्यगवबुद्धय कोपकारणं च व्यवहारतः निषद्यानुज्ञायी पञ्चम आचार्यः। (तभा ९.६ वृ) पुष्टमवलम्ब्य नान्यथाऽस्य शिक्षोपजायते इत्याभोग्य कोपं विधत्ते तदा स कोप आभोगनिर्वर्तितः। आयतचक्षु (प्रज्ञा १४.९ वृ प २९१) वह व्यक्ति, जिसका चक्षु संयत हो, दृष्टि अनिमेष हो। आभोगबकुश आयतचक्षुः-संयतचक्षुः अनिमेषदृष्टिरिति यावत्। (आभा २.१२५) बकुश निर्ग्रन्थ का एक प्रकार । वह मुनि, जो चिन्तनपूर्वक शरीर और उपकरण की विभूषा करता है। आयुसंवर्तक आयुष्य का संवर्तन-अकाल मरण-यह मनुष्य और पंचेन्द्रिय Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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