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________________ २८ जैन पारिभाषिक शब्दकोश अप्रतिज्ञः इहपरलोकेषु कामेषु अप्रतिज्ञ अमूर्च्छित अद्विष्टो अप्रतिष्ठित क्रोध वा। (सूत्र १.१५.२० चू पृ १८५) किसी बाह्य निमित्त के बिना केवल क्रोध वेदनीय के उदय २. प्रतिकार करने के संकल्प से रहित। से होने वाला आवेश। अप्रतिज्ञः-प्रतिकारसंकल्परहितः। (आभा ९.२.११) अप्रतिष्ठितो नाम यदैष स्वयं दुश्चरणमाक्रोशादिकं च कारणं ३. वह भिक्षु, जो केवल अपने लिए ही आहार आदि नहीं विना निरालम्बन एव केवलक्रोधवेदनीयादुपजायते। लाता, सभी के लिए लाता है। (प्रज्ञा १४.३ ७ प २९०) स अप्रतिज्ञो भवति-नात्मनः प्रतिज्ञया आहारादिकं गृह्णाति, अप्रत्याख्यानकषाय किन्तु सामुदायिकम्। (आभा २.११०) चारित्रमोहनीय कर्म की वह प्रकृति-कषायचतुष्टयी (क्रोध, ४. वह भिक्षु, जो अप्रतिज्ञात कुलों से भिक्षा ग्रहण करता है। मान, माया, लोभ), जिसके उदयकाल में देशविरति (देश."अपडिण्णायेसु कुलेसु गिण्हइ, ण य एतं परिण्णं वारित्ता चारित्र) की चेतना जागृत नहीं होती। गच्छति, जहा--अमुगकुलाणि गच्छीहामि सो अपडिण्णो। अप्रत्याख्यानो देशविरत्यावारकः। (स्थावृ प १८३) (आचू पृ७९,८०) अप्रतिपाति अवधिज्ञान अप्रत्याख्यानक्रिया वह अवधिज्ञान, जो केवलज्ञान की प्राप्ति से पूर्व नष्ट नहीं संयम का उपघात करने वाले कर्मोदय के कारण पापाचरण होता। से होने वाली अनिवृत्ति। यत् न केवलज्ञानादर्वाक् भ्रंशमुपयाति तदप्रतिपातीत्यर्थः।। संयमघातिकर्मोदयवशादनिवृत्तिरप्रत्याख्यानक्रिया। _(नन्दी ९ मवृ प ८२) (तवा ६.५) अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-उच्चारप्रस्त्रवणभूमि अप्रत्याख्यान क्रोध पौषधोपवास व्रत का एक अतिचार। उच्चारप्रश्रवण की भूमि । चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकृति। यह क्रोध भूमि की का निरीक्षण न करना अथवा सम्यक प्रकार से न करना। रेखा के समान दीर्घकाल तक टिकने वाला होता है। उच्चार:-पुरीषं, प्रस्त्रवणं-मूत्रं तयोर्भूमिः स्थण्डिलम्। पुढविराइसमाणे। (स्था ४.३५४) (उपा १.४२ वृ पृ १९) (द्र अप्रत्याख्यानकषाय) (द्र अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-शय्यासंस्तारक) अप्रत्याख्यान मान अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-शय्यासंस्तारक चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकृति। यह मान अस्थिपौषधोपवास व्रत का एक अतिचार। शय्या संस्तारक का । -स्तम्भ के समान स्तब्ध होता है। प्रतिलेखन न करना अथवा सम्यकतया प्रतिलेखन न करना। अद्विथंभसमाणे। (स्था ४.२८३) पोसहोववासस्स समणोवासएणं पंच अतियारा जाणियव्वा, (द्र अप्रत्याख्यानकषाय) न समायरियव्वा, तं जहा-१. अप्पडिलेहिय-दुप्पडिलेहियसिज्जासंथारे २. अप्पमज्जिय-दुप्पज्जिय-सिज्जासंथारे ३. अप्रत्याख्यान माया अप्पडिलेहिय-दुप्पडिलेहिय-उच्चारपसवणभूमी ४. चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकृति। यह माया मेंढे के सींग अप्पमज्जिय-दुप्पमज्जिय-उच्चारपासवणभूमी ५. पोसहो- के समान वक्र होती है। पवासस्स सम्म अणणपालणया। (उपा १.४२) मेंढविसाणकेतणासमाणा। (स्था ४.२८२) 'अप्रत्युपेक्षितो'-जीवरक्षार्थं चक्षुषा न निरीक्षितः, 'दुष्प्रत्यु- (द्र अप्रत्याख्यानकषाय) पेक्षितः' उद्भ्रान्तचेतोवृत्तितयाऽसम्यग्निरीक्षितः शय्या-शयनं तदर्थं संस्तारकः-कुश-कम्बलफलकादिशय्या-संस्तारकः, अप्रत्याख्यान लोभ ततः"अप्रत्युपेक्षितदुष्प्रत्युपेक्षितशय्यासंस्तारकः । चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकृति। यह लोभ कीचड़ के (उपा १.४२ वृ पृ १९) रंग के समान रञ्जक होता है-अधिक आसक्ति वाला For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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