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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश होता है। कद्दमरागरत्तवत्थसमाणे। (द्र अप्रत्याख्यानकषाय) (स्था ४.२८४) के समय शय्या-संस्तारक का वस्त्रखण्ड से प्रमार्जन न करना अथवा सम्यक्तया प्रमार्जन न करना। नवरं प्रमार्जनं वसनाञ्चलादिना। (उपा १.४२ व ११९) (द्र अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-शय्यासंस्तारक) अप्रथमसमयनिर्ग्रन्थ निग्रंथ (निग्रंथ) का एक प्रकार। (अन्तर्मुहूर्त की स्थितिवाले) उपशान्तमोह अथवा क्षीणमोह गुणस्थान के प्रथम समय को छोड़कर शेष समय में वर्तमान निग्रंथ । (द्र यथासूक्ष्मनिर्ग्रन्थ) अप्रमत्तसंयत जीवस्थान जीवस्थान/गुणस्थान का सातवां प्रकार। सर्वथा प्रमादमुक्त मुनि की आत्मविशुद्धि। अप्रमत्तसंयतः-सर्वप्रमादरहितः। (सम १४.५ वृप २६) अप्रश्न विद्या विद्या का एक प्रकार। वह जपसिद्ध विद्या, जो बिना प्रश्न किये ही मंत्रजप के समय व्यक्ति को शुभ-अशुभ का निर्देश कर देती है। या पुनर्विद्या मन्त्रविधिना जप्यमाना अपृष्टा एव शुभाशुभं कथयन्ति, एता: अप्रश्नाः । (समप्र ९८ वृ प ११५) अप्रातिहारिक मुनि द्वारा गृहस्थ से गृहीत वह वस्तु, जिसका प्रत्यर्पण नहीं किया जा सके। अप्रातिहारिकं सागारिकेण भक्तमुपकरणं वा यत् त्यक्तं निर्देयतया दत्तम्। (बृभा ३६५७ वृ) (द्र प्रातिहारिक) अप्रमाद १. अध्यात्मलीनता-स्वभाव के प्रति पूर्ण जागरूकता। अध्यात्मलीनता अप्रमादः। (जैसिदी ५. १३) २. धर्माराधना के प्रति होने वाली आन्तरिक जागरूकता। ३. कुशल अनुष्ठानों के प्रति होने वाला उत्साह और प्रवृत्ति। ४. शरीर, वाणी और मन का सुप्रणिधान। (द्र प्रमाद) अप्रमाद संवर अप्रमाद से होने वाला कर्म के आगमन का निरोध, प्रमाद आश्रव का निरोध। (स्था ५.११०) अप्राप्यकारी इन्द्रिय चक्षु और मन अपने विषय को प्राप्त किए बिना ही जान लेते हैं, इसलिए वे अप्राप्यकारी हैं। अप्पत्तकारि नयणं मणो य.......। (विभा ३४०) (द्र प्राप्यकारी इन्द्रिय) अप्रमार्जन असंयम असंयम का एक प्रकार । पात्र आदि का प्रमार्जन न करना अथवा विधिपूर्वक प्रमार्जन न करना। अप्रमार्जनाऽसंयमः-पात्रादेरप्रमार्जनयाऽविधिप्रमार्जनया वेति। (सम १७.१ ७ प ३२) अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित-उच्चारप्रस्रवणभूमि पौषधोपवास व्रत का एक अतिचार । उच्चारप्रस्रवण की भूमि का प्रमार्जन न करना अथवा सम्यक् प्रकार से न करना। (द्र अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-उच्चारप्रस्रवणभूमि ) । अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित-शय्यासंस्तारक पौषधोपवास व्रत का एक अतिचार। पौषधोपवास की आराधना अबद्धश्रुत (उनि २०३) (द्र आदेश) अबद्धिकवाद प्रवचननिह्नव का सातवां प्रकार। यथार्थ का अपलाप करने वाला दृष्टिकोण, जिसके अनुसार कर्म आत्मा का स्पर्श करते हैं, उसके साथ एकीभूत नहीं होते। स्पृष्टं जीवेन कर्म न स्कन्धबन्धवद्वद्धमबद्धं तदेषामस्तीत्यबद्धिकाः, स्पृष्टकर्मविपाकप्ररूपकाः। (स्था ७.१४० वृ प ३८९) अबन्धक वह जीव, जो कर्म का बंध नहीं करता। अयोगी अवस्था। मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगाणं बंधकारणाणं सव्वेसिमजो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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