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________________ जेन पारिभाषिक शब्दकोश अपहृत्य असंयम उच्चार आदि का अविधि से परिष्ठापन। अपहत्यासंयमः अविधिनोच्चारादीनां परिष्ठापनतो यः सः। (सम १७.१ वृ प ३२) अपान श्वास के पुद्गलों का उत्सर्जन करने वाली ऊर्जा, आन्तरिक क्रिया-श्वसनतन्त्र की क्रिया। 'आनन्ति वा प्राणन्ति वा' इत्यनेनाध्यात्मक्रिया परिगृह्यते। (भग १.१४ वृ) अपाय अवाय की तीसरी अवस्था, जिसमें ईहा की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है और ज्ञेय वस्तु अवधारणा के योग्य बन जाती है। सव्वहा ईहाए अवणयणं कातुं अवधारणावधारितत्थस्स अवधारयतो अवातो त्ति भण्णइ। (नन्दी ४७ चू पृ ३६) अपाय विचय धर्म्यध्यान का दूसरा प्रकार। राग-द्वेष आदि से उत्पन्न दोषों अथवा शारीरिक-मानसिक दु:खों के उत्पत्तिहेतु, क्षयहेतु आदि को ध्येय बनाकर उसमें होने वाली एकाग्रता। अपाया-रागद्वेषादिजन्या अनर्थाः। (भग २५.६०५७) अपाया-विपदः शारीर-मानसानि दःखानीति पर्यायास्तेषां विचयः-अन्वेषणम्। (तभा ९.३७) अपूर्वकरण १. सम्यक्त्व प्राप्ति से पूर्व होने वाला वह अध्यवसाय, जो पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ अथवा अपूर्व स्थितिघात और रसघात करने वाला आत्मपरिणाम। अप्राप्तपूर्वमपूर्वं स्थितिघातरसघाताद्यपूर्वार्थनिर्वर्तकं वाऽपूर्वम्। (विभा १२०२ वृ पृ ४५८) २. अष्टम गुणस्थान, श्रेणी-आरोहण के प्रारम्भ में होने वाला असदृश अध्यवसाय, जैसा पहले कभी नहीं आया। प्रथमसमय एव स्थितिघातरसघातगुणश्रेणिसंक्रमा अन्यश्च स्थितिबन्ध इत्येते पञ्चाप्यधिकारा यौगपद्येन पूर्वमप्रवृत्ताः प्रवर्त्तन्त इत्यपूर्वकरणम्। (आवृप २९८) ३. वह असदृश अध्यवसाय, जिसमें अनुप्रविष्ट जीव केवलज्ञान को प्राप्त करता है। कम्मरयविकिरणकरं अपुव्वकरणं अणुपविट्ठस्स अणंते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपण्णे केवलवरनाणदंसणे समुप्पज्जति। (भग ९. ४६) अपृथक्त्व अनुयोग अनुयोग की वह पद्धति, जिसमें प्रत्येक सूत्र पर नयदृष्टि से विचार किया जाता है। चरणकरणानुयोग-धर्मकथानुयोग-गणितानुयोग-द्रव्यानुयोगानामपृथग्भावोऽपृथक्त्वं प्रतिसूत्रमविभागेन वक्ष्यमाणेन विभागाभावेन प्रवर्तनं प्ररूपणमित्यर्थस्तस्मिन्नपृथक्त्वे नयानां विस्तरेणासीत् समवतारः। (विभा २२७९ वृ पृ २८) अप्काय (दहावृ प १३८) (द्र अप्कायिक) अपाय अनुप्रेक्षा शुक्लध्यान की एक अनुप्रेक्षा । अपायों-आश्रवद्वारों, दोषों का चिन्तन करना। अपाया आश्रवाणामिति गम्यते, यथा... आसवदारावाए तह संसारासुहाणुभावं च। भवसंताणमणंतं वत्थणं विपरिणामं च॥ (स्था ४.७२ वृ प १८१) अपुनर्बन्धक वह व्यक्ति, जो तीव्र भाव से पापकर्म नहीं करता, जो भवपरम्परा में लिप्त नहीं रहता। पावं न तिव्वभावा कुणइ ण बहुमण्णई भवं घोरं। उचियट्टिइं च सेवइ सव्वत्थ वि अपुणबंधो त्ति॥ (योश १३) अप्कायिक षड्जीवनिकाय का दूसरा प्रकार । वह जीव, जिसका शरीर पानी है। आपो-द्रवाः प्रतीता एव ता एव काय:-शरीरं येषां तेऽप्कायाः। अप्काया एव अप्कायिकाः। (दहावृ पृ१३८) अप्रतिज्ञ १. वह व्यक्ति, जो इहलोक और परलोक संबंधी कामभोगों में अमूर्च्छित और अद्विष्ट होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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