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________________ २६ जैन पारिभाषिक शब्दकोश ३. एषणा दोष का एक प्रकार। जो पूर्ण प्रासुक न हो, उसे अपर्याप्तिका भाषा लेना। जिस भाषा के द्वारा प्रतिनियत रूप से अर्थ का अवधारण न देयद्रव्यं मिश्रमचित्तत्वेनापरिणमदपरिणतम्। किया जा सके। सत्यामृषा (मिश्र) और असत्यामृषा (योशा १.३८ वृ पृ १३७) (व्यवहार) भाषा अपर्याप्तिका भाषा है। न प्रतिनियतरूपतयाऽवधारयितुं शक्यते सा अपर्याप्ता, सा च अपरिणामक सत्यामृषा असत्यामृषा वा। (प्रज्ञा ११.३१ ७ प २५७) वह साधु, जो आगमोक्त विषय पर यथार्थ रूप में श्रद्धा नहीं करता और जिसकी गति केवल उत्सर्ग-मार्ग में परिणत अपवर्तना होती है। कर्मकरण का एक प्रकार, जिसमें कर्म की स्थिति और अनुभाग जो दव्व-खेत्तकय-काल-भावओ जं जहा जिणक्खायं। की हानि होती है। तं तह असद्दहतं, जाण अपरिणामयं साहं। कर्मणां"स्थित्यनुभागहानि: अपवर्तना। दोसु वि परिणमइ मई, उस्सग्गऽववायओ उ पढमस्स। (जैसिदी ४.५ वृ) बिइतस्स उ उस्सग्गे, अइअववाए य तइयस्स। अपवर्त्यते ह्रस्वीक्रियते स्थित्यादि यया साऽपवर्तना। (बृभा ७९४, ७९७) (कप्र १.२) अपरिवर्ता अपवर्तनीय आयुष्य (कग्र ५. १८) वह आयुष्य, जो समय से पूर्व समाप्त होता है। (द्र अपरावर्त्तमाना) शीघ्रमन्तर्मुहूर्तात्"यः सकलायुष्यकर्मफलोपभोगस्तदपवर्तनम्। (तभा २.५२ वृ) अपरिश्रावी स्नातक निर्ग्रन्थ की एक अवस्था, जो चौदहवें गुणस्थान- अपवाद सूत्र -प्राप्त निर्ग्रन्थ के सम्पूर्ण योग के निरोध की सूचक है। वह सूत्र, जिसमें आचार-विषयक विशेष विधि का प्रतिपादन निष्क्रियत्वात्सकलयोगनिरोधे अपरिश्रावी। होता है। (बृभा ३३१७) (स्था ५.१८९ वृ प ३२०) (द्र उत्सर्ग सूत्र) अपर्यवसित श्रुत अपवादोत्सर्ग सूत्र श्रुतज्ञान का एक भेद। द्वादशाङ्ग, जो अव्युच्छित्ति नय की वह सूत्र, जिसमें आचार-विषयक विशेष और सामान्य विधियों अपेक्षा से अपर्यवसित है। का प्रतिपादन हो। अवुच्छित्तिनयट्ठयाए अणाइयं अपज्जवसियं। (नन्दी ६८) विहिभिन्नस्स य गहणं, अववाउस्सग्गियं सुत्तं। (बृभा ३३१७) अपर्याप्तक (द्र उत्सर्गोपवाद सूत्र) वह जीव, जो अपर्याप्त नाम कर्म के उदय से जीवन-धारण के लिए अपेक्षित पर्याप्तियों को पूर्ण नहीं कर पाता। अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना अपज्जत्तयणामकम्मोदएणं अणिव्वत्तातो जेसिं ते अपज्ज- संलेखना के द्वारा शरीर को अनशन योग्य बनाकर किया जाने त्तया। (नन्दी २३ चू पृ २२) वाला आमरण आहार का परित्याग। (द्र पर्याप्तक) पश्चिमैवामंगलपरिहारार्थमपश्चिमा मरणं-प्राणत्याग लक्षणम्।""मरणमेवान्तो मरणान्तस्तत्र भवा मारणान्तिकी, अपर्याप्तकनाम संलिख्यते-कृशीक्रियतेऽनया शरीरकषायादीति संलेखना नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से जीव स्वयोग्य तयोर्विशेषलक्षणा ततः कर्मधारयाद् अपश्चिममारणान्तिकपर्याप्तियां पूर्ण नहीं कर पाता। (प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४७४) संलेखना। (भग ७.३५ वृ) Jain (द्र पर्याप्तकनाम) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org onal
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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