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________________ ३२६ जैन पारिभाषिक शब्दकोश स्पर्धकपति गण के अवान्तर विभाग का नायक। (व्यभा २३४) स्पर्श पुद्गल का एक लक्षण, जो स्पर्शनेन्द्रिय के द्वारा ग्राह्य है। कायस्स फासं गहणं वयंति"। (उ ३२.७४) फासस्स कायं गहणं वयंति"। (उ ३२.७५) (द्र गन्ध) स्पर्शनेन्द्रिय असंवर (आश्रव) कर्म-आकर्षण की हेतुभूत स्पर्शनेन्द्रिय की प्रवृत्ति। (स्था १०.११) स्पर्शनेन्द्रिय निग्रह प्रिय, अप्रिय स्पर्श में होने वाले राग-द्वेष का निग्रह, जिसके द्वारा तद्हेतुक कर्म का बंध नहीं होता और पर्वबद्ध कर्म की निर्जरा होती है। .""फासिंदियनिग्गहेणं मणुण्णामणुण्णेसु फासेसु रागदोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ॥ (उ २९.६७) स्पर्शनेन्द्रिय प्रत्यक्ष इन्द्रिय प्रत्यक्ष का एक प्रकार । स्पर्शनेन्द्रिय की सहायता से होने वाला स्पर्श का ज्ञान। (द्र इन्द्रियप्रत्यक्ष) स्पर्शनक्रिया क्रिया का एक प्रकार । प्रमादवश छूने की प्रवृत्ति । प्रमादवशात् स्पृष्टव्यसञ्चेतनानुबन्धः स्पर्शनक्रिया।। (तवा ६.५.९) स्पर्शना अवगाढ क्षेत्र के बाहर भी अपने पार्श्ववर्ती आकाशप्रदेशों का स्पर्श, जैसे----एक परमाणु की स्पर्शना सात आकाशप्रदेशों की होती है। ""एगपएसं खेत्तं सत्तपएसा य सा फुसणा॥ यत्रावगाढस्तत् क्षेत्रमुच्यते, यत्त्ववगाहनातो बहिरप्यतिरिक्तं क्षेत्रं स्पृशति सा स्पर्शनाऽभिधीयते। (विभा ४३२ वृ पृ २०८) आकाशप्रदेशैः पर्यन्तवर्तिभिः सह यः स्पर्शस्तत् स्पर्शनम्। (तभा १.८ वृ) स्पर्शनेन्द्रिय प्राण वह प्राण, जो छूने की शक्ति के लिए उत्तरदायी है। (प्रसा १०६६) स्पर्शनेन्द्रियरागोपरति अपरिग्रह महाव्रत की एक भावना। मनोज्ञ स्पर्श में राग का वर्जन और अमनोज्ञ स्पर्श में द्वेष का वर्जन करना। (सम २५.१.२५) (द्र चक्षुरिन्द्रियरागोपरति) स्पर्शनेन्द्रिय संवर स्पर्शनेन्द्रिय के संयम से होने वाला कर्मनिरोध । (स्था १०.१०) स्पर्शनाम नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से शरीर के स्पर्श की व्यवस्था होती है। स्पृश्यते इति स्पर्शः,""स च कर्कशमृदुलघुगुरु-स्निग्धरूक्षशीतोष्णभेदादष्टप्रकार:, तन्निबन्धनं स्पर्शनामाप्यष्टप्रकारम्। तत्र यदुदयाज्जन्तुशरीरेषु कर्कशः स्पर्शो भवति यथा पाषाणविशेषादीनां तत्कर्कशस्पर्शनाम, एवं शेषाण्यपि स्पर्शनामानि भावनीयानि। (प्रज्ञा २३.५० वृ प ४७२) स्पर्शनेन्द्रिय वीर्यान्तराय और प्रतिनियत (स्पर्शन) इन्द्रियावरण के क्षयोपशम तथा अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय का आलम्बन लेकर आत्मा जिसके द्वारा स्पृश्य का स्पर्श करती है। वीर्यान्तरायप्रतिनियतेन्द्रियावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनाम- लाभावष्टम्भात् स्पर्शत्यनेनात्मेति स्पर्शनम्। (तवा २.१९) स्पर्शपरिचारक सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पवासी देव, जिनकी कामेच्छा देवी के स्पर्शमात्र से शांत हो जाती है। दोसुं कप्पेसु देवा फासपरियारगा पण्णत्ता, तं जहासणंकुमारे चेव माहिंदे चेव। (स्था २.४५७) स्पर्शादिपरिचारकाः स्पर्शादेरेवोपशान्तवेदोपतापा भवन्ति। (स्थावृ प ९५) स्पर्शक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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