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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश ३२७ अचित्त होने के कारण मुनि के लिए अभिलषणीय। (भग १.४३८ भा) (द्र प्रासुक) स्पृशद्गति वह गति, जिसमें एक परमाणुपुद्गल दूसरे परमाणुपुद्गलों व स्कंधों का स्पर्श करते हुए गति करता है। फुसमाणगती-जण्णं परमाणुपोग्गले दुपदेसिय जाव अणंत-पदेसियाणं खंधाणं अण्णमण्णं फुसित्ता णं गती पवत्तइ। (प्रज्ञा १६.३९) तत्र परमाण्वादिकं यदन्येन परमाण्वादिकेन परस्परं संस्पृश्यसंस्पृश्य-संबंधमनुभूयानुभूयेत्यर्थः इति भावः गच्छति सा स्पृशद्गतिः। (प्रज्ञावृ प ३२८) और जिसका उपयोग 'वह' इस आकार में होता है। वासनोबोधहेतुका तदित्याकारा स्मृतिः। (प्रमी १.२.३) २. वह चैतन्य-परिणति, जिसके द्वारा इन्द्रियों से परिच्छिन्न विषय की, कालान्तर में विनष्ट हो जाने पर भी स्मृति होती है। इन्द्रियैः यः परिच्छिन्नो विषयो रूपादिस्तं यत् कालान्तरेण विनष्टमपि स्मरति तत् स्मृतिज्ञानम्। (तभा १.१३ वृ) ३. वह चैतन्य-परिणति, जिसका आलम्बन अतीत की वस्तु है, जिसका कर्त्ता एक ही व्यक्ति होता है, जिसका अपर नाम मनोज्ञान है। अतीतवस्त्वालम्बनमेककर्तृकं चैतन्यपरिणतिस्वभावं मनोज्ञानमितियावत्। (तभा १.१३ वृ) स्मृतिवर्जन ब्रह्मचर्य गुप्ति का छठा प्रकार। (स्था ९.३) (द्र पूर्वरतानुस्मरणवर्जन) स्मृति समन्वाहार प्रणिधानविशेष, स्मृति अथवा मन की एकतानता। किसी एक विषय में चित्त का निवेशन। स्मृतिसमन्वाहारो नाम “य आत्मनः प्रणिधानविशेषः स समन्वाहारः स्मृते: ।स्मृतिहेतुत्वाद् वा स्मृतिर्मनः। तस्याः स्मृतेः प्रणिधानरूपायाः समन्वाहरणं समन्वाहारः। "एकतानमनोनिवेशनम्। (तभा ९.३१ वृ) अर्थान्तरचिन्तनादाधिक्येनाहरणमेकत्रावरोधः समन्वाहारः। स्मृतेः समन्वाहार: स्मृतिसमन्वाहारः। (तवा ९.३०) स्पृष्ट १. वह कर्मपुद्गल, जिसका आत्मप्रदेशों के साथ संश्लेष हो चुका। कर्मरूपतया परिणमितस्य स्पृष्टस् आत्मप्रदेशैः सह संश्लेष-मुपगतस्य। (प्रज्ञा २३.१३ वृ प ४५९) २. श्रोत्रेन्द्रिय का विषयभूत शब्द, जिसका ग्रहण श्रोत्र के स्पर्श मात्र से होता है। पुटुं सुणेइ सई"। (नन्दी ५४.४) 'स्पृष्टमिति' आलिङ्गितम्, तनौ रेणुवत्, 'शृणोति' गृह्णाति। (नंदीहावृ पृ ५७) स्फोटन कर्म कर्मादान का एक प्रकार। १. भूमि का खनन। २. यव आदि धान्यों का सत्तू आदि बनाकर किया जाने वाला विक्रय। 'फोडि'त्ति स्फोटनकर्म-वापीकूपतडागादिखननं यद्वा हलकुद्दालादिना भूमिदारणं पाषाणादिघट्टनं वा, यवादिधान्यानां सक्त्वादिकरणेन विक्रयो वा। (प्रसावृ प ६२) ३. पटाखे, आतिशबाजी आदि बारुद की चीजों से आजीविका करना। स्यात् क्रियाप्रतिरूपक अव्यय । द्रव्यमीमांसा में इसका प्रयोग अपेक्षा की सूचना के लिए किया जाता है। णियमणिसेहणसीलो णिपादणादो य जो ह खल सिद्धो। सो सियसहो भणिओ जो सावेक्खं पसाहेदि॥ (नच २५३) स्याद् अवक्तव्य एक वस्त, जिसके अनेक पर्यायों की वक्तव्यता एक साथ नहीं की जा सकती, जैसे--द्विप्रदेशी स्कन्ध के स्व-पर स्वरूप तथा वर्तमान, भूत और भावी पर्याय को एक साथ कहा नहीं जा सकता, इस अपेक्षा से स्यात् अवक्तव्य है। स्मृतिज्ञान १. वह ज्ञान, जिसकी उत्पत्ति का हेतु है संस्कारों का जागरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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