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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश ३२५ और गिरने के साथ ही जो समाप्त हो जाता है। अत्थि णं भंते! सदा समितं सुहुमे सिणेहकाए पवडइ ? हंता अस्थि॥ .""से णं खिप्यामेव विद्धंसमागच्छइ। (भग १.३१४, ३१६) स्थूलप्राणातिपातविरमण गहस्थ धर्म का पहला व्रत । स्थल-देशत: हिंसा का त्याग। थूलयं पाणाइवायं पच्चक्खाइ। (उपा १.२४) 'थूलगं' ति त्रसविषयम्। (उपा १.२६) स्थूला एव स्थूलकास्तेषां प्राणा:-इन्द्रियादयः तेषामतिपात: स्थूलप्राणातिपातः तं श्रमणोपासकः श्रावक इत्यर्थः प्रत्याख्याति, तस्माद विरमत इति भावना। (आवहावृ२ पृ २१९) बालपंडिए णं मणुस्से"सोच्चा निसम्म देसं उवरमइ, देसं णो उवरमइ। (भग १.३६३) 'देसं' स्थूलं प्राणातिपातादिकं प्रत्याख्याति। (भग १.३६३ वृ) स्थूलमृषावादविरमण गृहस्थ धर्म का दूसरा व्रत । स्थूल-देशतः असत्य का त्याग। थूलयं मुसावायं पच्चक्खाइ। (उपा १.२५) (द्र स्थूलप्राणातिपातविरमण) स्नेहराग राग का एक प्रकार । पुत्र आदि के प्रति होने वाला अनुराग। स्नेहरागस्तु विषयादिनिमित्तविकलोऽविनीतेष्वप्यपत्यादिषु यो भवति। (आवहावृ १ पृ२५९) (द्र राग) स्नेहसूक्ष्म जल का सूक्ष्म रूप, जैसे-ओस, भूमि से निकलता हुआ जलबिन्दु आदि। सिणेहसुहुमं पंचपगारं, तं जहा-ओसा, हिमए, महिया, करए, हरतणुए। (द ८.१५ जिचू पृ २७८) स्नातक निर्ग्रन्थ का पांचवां प्रकार। मोहनीय आदि चार घाती कर्मों का विनाश करने वाला। मोहणिज्जाइघातियचउकम्मावगतो सिणातो भण्णति। (उचू पृ १४४) स्नान अनाचार का एक प्रकार । मुनि के लिए देशस्नान या सर्वस्नान करना अनाचरणीय है। सिणाणं दुविहं देसतो सव्वतो वा। (द ३.२ अचू १६०) (द्र देशस्नान) स्पर्धक वर्गणा का अवन्तर विभाग। वर्गणासमुदाये। (क प्र१) अविभागपरिच्छिन्नकर्मप्रदेशभागप्रचयपङ्क्तेः क्रमवृद्धिः क्रमहानिः स्पर्धकम्। (तवा २.५.४) स्पर्धक अवधि अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न वह अवधिज्ञान, जिसकी ज्ञानरश्मियों का निर्गमन स्पर्धकों के माध्यम से होता है। जेसिं जीवाणं केसु वि आगासपदेसेसु ओही उप्पण्णो केसु वि न उप्पण्णो, तत्थ जेसु उप्पण्णो ते फड्डगा भण्णंति। (आवचू १ पृ६१) इह फडकानि अवधिज्ञाननिर्गमद्वाराणि अथवा गवाक्षजालादिव्यवहितप्रदीपप्रभाफडकानीव फडकानि। (आवनि ६० हावृ पृ २९) स्पर्धकं च नामावधिज्ञानप्रभाया गवाक्षजालादिद्वारविनिर्गतप्रदीपप्रभाया इव प्रतिनियतो विच्छेदविशेषः । (नन्दीमवृ प ८३) (द्र करण, चैतन्यकेन्द्र, सन्धि) स्निग्ध १. स्पर्श का एक स्नेहात्मक गुण। स्नेहो हि गुणः स्पर्शाख्यः, तत्परिणामः स्निग्धः । (तभा ५.३२ वृ) (द्र रूक्ष) २. परमाणु की धनात्मक ऊर्जा । स्नेहकाय जल का सूक्ष्मतम रूप, जिसका प्रपात प्रतिक्षण होता रहता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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