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________________ ३२४ जैन पारिभाषिक शब्दकोश सह निधत्तायुः स्थितिनामनिधत्तायुः। (प्रज्ञा ६. ११८ वृ प २१७, २१८) सिज्जायरपिंडे या, चाउज्जामे य पुरिसजेटे य। कितिकम्मस्स य करणे, चत्तारि अवट्ठिया कप्या॥ (बृभा ६३६१) आचेलक्कुदेसिय, सिज्जायर रायपिंड कितिकम्मे। वत जेटु पडिक्कमणे, मासं-पज्जोसवणकप्पे। (बृभा ६३६४) एष च दशविधोऽपि सततासेवनेन प्रथमचरमजिनसाधूनामवस्थितः कल्पः।"स्थित:-अवस्थितः, कल्प:-मर्यादा। (प्रसावृप १८४) (द्र अस्थितकल्प) स्थितिप्रतिघात १. कर्म की स्थिति का अल्पीकरण, जो उदीरणा के द्वारा निष्पन्न होता है। २. अध्यवसाय-विशेष के कारण शुभ देवगति-प्रायोग्य कर्मों के बंधनकाल के तत्काल बाद अध्यवसाय-विशेष के द्वारा दीर्घकाल की स्थिति का ह्रस्वीकरण। स्थिते:-शुभदेवगतिप्रायोग्यकर्मणां बद्ध्वैव प्रतिघात: स्थितिप्रतिघातः, भवति चाध्यवसायविशेषात्स्थितेः प्रतिघातो, यदाह-दीहकालठिइयाओ हस्सकालठिइयाओ पकरे। (स्था ५.७० वृ प २८९) स्थितलेश्य मरण १. बालमरण का एक प्रकार, जिसमें अशुद्ध लेश्याएं जैसी हैं, वैसी ही रहती हैं। २. पण्डितमरण का एक प्रकार, जिसमें कुछ लेश्याएं जैसी हैं, वैसी ही रहती हैं। ३. बालपण्डितमरण का एक प्रकार। स्थिर लेश्या वाला मरण। बालमरणे "ठितलेस्से"। पंडियमरणे"ठितलेस्से । बालपंडियमरणे "ठितलेस्से। स्थिता-अवस्थिता अविशुध्यन्त्यसंक्लिश्यमाना च लेश्या कृष्णादिर्यस्मिन् तस्थितलेश्यः। (स्था ३.५२०-५२३ वृ प १६५) स्थितिबन्ध बंध का एक प्रकार । कर्मप्रकृति की अवस्थिति-कालावधि का निवर्तन। कर्मणः प्रकृतयः""तासामेवावस्थानं जघन्यादिभेदभिन्नं तस्या बन्धो-निवर्त्तनं स्थितिबन्धः। (स्था ४.२९० वृप २०९) स्थिरनाम नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से शरीर के अवयवसिर, अस्थि, दांत स्थिर रहते हैं। यदुदयवशात् शरीरावयवानां शिरोस्थिदन्तानां स्थिरता भवति तत्स्थिरनाम। (प्रज्ञा २३.३८ वृप ४७४) स्थितात्मा वह मनुष्य, जिसकी आत्मा ज्ञान. दर्शन और चारित्र में स्थित होती है। णाणदंसणचरित्तेस ठिओ अप्पा जस्स सो ठियप्पा। (द १०.१७ जिचू पृ ३४७) स्थितिकल्याण वह देव, जो उत्कृष्ट या मध्यम स्थिति वाला होता है। ठितिकल्लाणे त्ति उक्कोसिया द्विती अजहण्णमणुक्कोसा वा। (सूत्र २.२.६९ चू पृ ३६७) स्थितिनामनिधत्तायु आयुबंध का एक प्रकार । एक भव की स्थिति-कालमान के साथ होने वाला आयु का निषेचन। स्थितियतेन भवेन स्थातव्यं तत्प्रधानं नाम स्थितिनामतेन स्थिरीकरण सम्यक्त्व का छठा आचार। धर्ममार्ग से विचलित हो रहे व्यक्तियों को धर्म में पुनः स्थिर करना।। स्थिरीकरणं च अभ्युपगमधर्मानुष्ठानं प्रति विषीदतां स्थैर्यापादनम्। (उ २८.३१ शावृ प ५६७) स्थूलअदत्तादानविरमण गृहस्थ धर्म का तीसरा व्रत। स्थूल-देशतः चोरी का त्याग। थूलयं अदिण्णादाणं पच्चक्खाइ। (उपा १.२६) स्थूलमेव स्थूलकं स्थूलकं च तद् अदत्तादान चेति समासः तच्छ्मणोपासकः प्रत्याख्याति। (आवहावृ पृ २२१) (द्र स्थूलप्राणातिपातविरमण) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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