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________________ २६६ जैन पारिभाषिक शब्दकोश ४. आभ्यन्तर तप का एक प्रकार। आशातना न करना और शुक्लध्यान की एक अनुप्रेक्षा । वस्तुओं के विविध परिणामों बहुमान करना। का चिन्तन करना। अनाशातना बहुमानकरणं विनयः। (जैसिदी ६.३८) 'विपरिणामे' त्ति विविधेन प्रकारेण परिणमनं विपरिणामो ५. ज्ञानाचार का एक प्रकार । ज्ञानप्राप्ति के प्रयत्न में विनम्र वस्तूनामिति गम्यते। (स्था ४.७२ वृ प १८१) रहना। विपर्यय विनये-विनयविषये ज्ञानस्य ज्ञानिनां ज्ञानसाधनानां च जो वस्तु जैसी नहीं है, उसका उस रूप में ज्ञान होना। पुस्तकादीनामुपचाररूपः। (प्रसावृ प ६४) अतस्मिंस्तदेवेति विपर्ययः। (प्रमी १.१.७) विनयज्ञ वह मुनि, जो आचार तथा अनुशासन का ज्ञाता है। विपाकजा निर्जरा विनयः-आचारः अनुशिष्टि। (आभा पृ १२२) कर्म की कालावधि के समाप्त होने पर निर्धारित समय पर कर्म के विपाक से होने वाली निर्जरा। विनयसम्पन्नता क्रमेण परिपाककालप्राप्तस्यानुभवोदयावलिस्रोतोऽनप्रविष्टज्ञान, दर्शन और चारित्र तथा ज्ञानी, दर्शनी और चारित्रवान् स्यारब्धफलस्य या निवृत्तिः सा विपाकजा निर्जरा। के प्रति होने वाला आदर अथवा कषाय की निवृत्ति। (ससि ८.२३) ज्ञानादिषु तद्वत्सु चादरः कषायनिवृत्तिर्वा विनयसम्पन्नता। (द्र अविपाकजा निर्जरा) (तवा ६.२४.२) विपाकप्राप्त विनयहीन कर्म की वह अवस्था, जिसमें फल देने की शक्ति परिपक्व ज्ञान का एक अतिचार । विरामरहित उच्चारण करना। हो जाती है, कर्म फलदान में प्रवृत्त हो जाता है। अकृतोचितविनयम्। (आव ४.८ हावृ २ पृ १६१) विपाकप्राप्तस्य विशिष्टपाकमुपगतस्य। विनयोपग (प्रज्ञा २३.१३ वृप ४५९) योगसंग्रह का एक प्रकार। विनम्र होना, अहंकार से मुक्त विपाक विचय होना। धर्म्यध्यान का तीसरा प्रकार । कर्म के विविध फलों को ध्येय विनयोपगतो भवेत् न मानं कुर्यात्। बनाकर उसमें होने वाली एकाग्रता। विविधो विशिष्टो वा पाको विपाक:-अनुभावः"तस्य (सम ३२.१.२ १ प ५५) विनिघात विचयः-अनुचिन्तनं मार्गणम्। (तभा ९.३७ वृ) शारीरिक और मानसिक दुःख का उदय अथवा कर्मों का विपाकश्रुत फलविपाक। द्वादशाङ्ग का ग्यारहवां अङ्ग, जिसमें शुभ और अशुभ कर्मों अधिको णियतो वा घातः निघातः, विविधो वा घात:शरीर- के बंधन, प्रभाव और परिणामों का वर्णन है। मानसदुःखोदयो अट्ठपगारकम्मफलविवागो वा। विवागसुए णं सुकडदुक्कडाणं कम्माणं फलविवागे आघ(सूत्र १.७.३ चू पृ १९१) विज्जइ। तत्थ णं दस दुहविवागा, दस सुहविवागा"से णं अंगट्ठयाए इक्कारसमे अंगे"संखेज्जाइं पयसहस्साई पयविनिवर्तना ग्गेणं"। (समप्र ९९) इन्द्रियविषयों से मन को लौटाना। 'विनिवर्तनया'विषयेभ्य आत्मनः पराङ्मुखीकरणरूपया। विपाकश्रुतधर (उ २९.३३ शावृ प ५८७) वह मुनि, जो विपाकश्रुत के सूत्रपाठ और अर्थ का विशेषज्ञ होता है। विपरिणामानुप्रेक्षा अप्पेगइया विवागसुयधरा। (औप ४५) Jain Education International For Private & PersonaLUse Only. -...---- www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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