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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश २६७ आदि का सापेक्ष प्ररूपण। विभज्यवादो नाम भजनीयवादः। तत्र शंकिते भजनीयवाद एव वक्तव्यः-अहं तावदेवं मन्ये, अतः परमन्यत्रापि पुच्छेज्जसि।अथवा विभज्यवादो नाम अनेकांतवादः, स यत्र यत्र यथा युज्यते तथा तथा वक्तव्यः, तद्यथा-नित्यानित्यत्वमस्तित्वं वा प्रतीत्यादि। __ (सूत्र १.१४.२२ चू पृ २३५) विभाग पर्याय का एक लक्षण । वियुक्त पदार्थों में भिन्नता की प्रतीति का कारणभूत पर्याय, जैसे-यह उससे विभक्त है। वियुक्तेषु भेदज्ञानस्य कारणभूतो विभागः, यथा अयमितो विभक्तः। (जैसिदी १.४६ ) विपाकोदय कर्म की वह उदयावस्था, जिसमें उसके विपाक (फल) का अनुभव होता है। यत्र फलानुभवः स विपाकोदयः। (जैसिदी ४.५ वृ) विपुलमतिमन:पर्यव मन के विशेष और विविध पर्यायों को जानने वाला मन:पर्यवज्ञान। विपुला मती विपुलमती, बहुविसेसग्गाहिणि त्ति भणितं भवति। (नंदी २४ चू पृ २२) विउलमती नाम मणोगयं भावं पडुच्च सपज्जायग्गाहिणी मती। (आवचू १ पृ ६८) विपुडौषधि लब्धि का एक प्रकार । मल-मूत्र के द्वारा रोग दूर करने वाली योगज विभूति। विट्ठ ओसहिसामत्थजुत्तत्तेण विप्पोसही भन्नति। विप्पोसधी य रोगाभिभूतं अप्पाणं वा परं वा छिवत्ति तं तक्खणा चेव ववगयरोगायंकं करोति। (आवचू १ पृ६८) विड् उच्चारः""आत्मानं परं वा रोगापनयनबद्धया विडादिभिः स्पृशतः साधोस्तद्रोगापगमः। (विभा ७७९ वृ) विभङ्गज्ञान वह अतीन्द्रिय ज्ञान (अवधिज्ञान), जो मिथ्यादृष्टि को उपलब्ध होता है। तं चेव ओहिण्णाणं मिच्छादिट्ठिस्स वितहभावगाहित्तणेण विभंगणाणं भण्णति। (आवचू १ पृ६४) मिथ्यादृष्टेरवधिर्विभङ्ग उच्यते। (तभा २.५ वृ) । विभक्तिभाव कर्म के द्वारा होने वाला जीव और जगत-जीवसमूह का नानात्व। कम्मओणं जीवे नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ। (भग १२.१२०) विभज्यवाद १. भजनीयवाद, विश्लेषण अथवा विभागपूर्वक प्रयुक्त किया । जाने वाला वचन। २. अनेकान्तवाद। नित्यत्व-अनित्यत्व, अस्तित्व-नास्तित्व विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण द्रव्य प्रमाण का एक प्रकार। वह माप (या तोल) जिसमें मेय और मापक पृथक्-पृथक होते हैं। जैसे-१ किलो गेहूं, १ क्विटल बाजरा आदि। (अनु ३७२) विभावपर्याय दूसरे के निमित्त से होने वाली अवस्था। परनिमित्तापेक्षो विभावपर्यायः। (जैसिदी १.४५) विभूषा अनाचार का एक प्रकार । शरीर की विभूषा करना जो मुनि के लिए अनाचरणीय है। विभूषणं अलंकरणं। __ (द ३.९ अचू पृ६२) विभूषापरिवर्जन ब्रह्मचर्य गुप्ति का नौवां प्रकार । शरीर की विभूषा का वर्जन करना। विभूसं परिवजेज्जा, सरीरपरिमंडणं। बंभचेररओ भिक्खू सिंगारत्थं न धारए॥ (उ १६.९) विमर्श ईहा की पांचवीं अवस्था, जिसमें अर्थ के नित्य, अनित्य आदि धर्मों का विमर्श होता है। "तमेवत्थं णिच्चाऽणिच्चादिएहिं दव्वभावेहिं विमरिसतो वीमंसा भण्णति। (नन्दी ४५ चू पृ ३६) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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