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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश २६५ 'विजाचारण' त्ति विद्या-श्रुतं, तच्च पूर्वगतं तत्कृतोप- विद्युत्कुमार काराश्चारणा विद्याचारणाः। (भग २०.७९ वृ) वे भवनपतिदेव, जिनका शरीर स्निग्ध, प्रकाश वाला और २. विद्या-दिव्य शक्ति की साधना से प्राप्त गमनागमन की अवदात होता है। जिनका चिह्न है वज्र। लब्धि से सम्पन्न मुनि। स्निग्धा भ्राजिष्णवोऽवदाता वज्रचिह्ना विद्युत्कुमाराः। ये पुनर्विद्यावशतः समुत्पन्नगमनागमनलब्धयस्ते विद्या (तभा ४.११) चारणाः । (प्रसावृ प १६८) विधानादेश विद्यातिशय व्याख्या का एक कोण, जिसके द्वारा वस्तु के प्रकार जाने स्तम्भनविद्या, स्तोभविद्या, वशीकरण, विद्वेषीकरण, उच्चाटन जाते हैं। आदि विशिष्ट विद्याएं। 'ओघादेसेणं' ति सामान्यतः, विहाणादेसेणं'ति विधानादेश: विद्यातिशया: स्तम्भस्तोभवशीकरणविद्वेषीकरणोच्चाटना यत्समुदितामप्येकैकस्यादेशनं तेन। (भग २५.५८ ७) दयः। (समप्र ९८७ प ११५) विधानम्-प्रकारः। (जैसिदी १०.११ वृ) विद्याधर विधि वह मुनि, जिसे प्रज्ञप्ति आदि अनेक विशिष्ट विद्याओं की वस्तु का विद्यमान अंश। सिद्धि प्राप्त हो। विधि: सदंशः। (प्रनत ३.५६) 'विज्जाहरा' त्ति प्रज्ञप्त्यादिविविधविद्याविशेषधारिणः। (औप १.२४ वृ प ५४) विधिनिर्गत वह मुनि, जो गुरु की आज्ञा प्राप्त कर संघमुक्त साधना करता विद्याधरश्रमण है, जैसे-जिनकल्पिक, प्रतिमाप्रतिपन्न, यथालन्दिक और वह श्रमण, जो दशपूर्व का अध्येता है और रोहिणी, प्रज्ञप्ति शुद्धपारिहारिक। आदि विशिष्ट विद्याओं को धारण करता है। विधिनिर्गताश्चतुर्धा-जिनकल्पिका: प्रतिमाप्रतिपन्ना यथाअन्येऽधीतदशपूर्वा रोहिणीप्रज्ञप्त्यादिमहाविद्यादिभिरंगुष्ठ लन्दिकाः शुद्धपारिहारिकाः। (बृभा ५८२५ वृ) प्रसेनिकादिभिरल्पविद्याभिश्चोपनतानां भूयसीनामृद्धीनामवशगा विद्यावेगधारणात् विद्याधरश्रमणाः। विनय (योशा १.८ वृ पृ ४१) १. संयम, जो आठ कर्मों को दूर करता है। कर्माष्टकविनयनाद्विनयः-संयमः। (आवृ प ७१) विद्यानुप्रवाद २. अचौर्य महाव्रत की एक भावना। गुरु, तपस्वी और दसवां पूर्व, जिसमें अतिशायी विद्याओं और मंत्रों की साधना साधर्मिकों के प्रति तथा अध्ययन, जिज्ञासा आदि के अवसर की विधि का प्रज्ञापन किया गया है। पर की जाने वाली विनम्रता। दसमं विज्जणुप्पवातं, तत्थ य अणेगे विज्जातिसया वण्णिता। साहम्मिएसु विणओ पउंजियव्वो,""एवं विणएण भाविओ (नंदी १०४ चू पृ७६) भवति अंतरप्पा। (प्रश्न ८.१३) विद्यापिण्ड ३. वह अनुकूल आचरण, जो रत्नत्रय युक्त व्यक्तियों के उत्पादन दोष का एक प्रकार। विद्या (देवी अधिष्ठित) का । प्रति; स्वाध्याय, संयम, संघ, गुरु और सब्रह्मचारी के प्रति प्रयोग कर भिक्षा लेना। किया जाता है। (द्र चूर्णपिण्ड) रयणत्तयजुत्ताणं अणुकूलं जो चरेदि भत्तीए। (काअ ४५८) विद्याप्रधान स्वाध्याये संयमे सङ्के गुरौ सब्रह्मचारिणि। (औप २५ वृ) यथौचित्यं कृतात्मानो विनयं प्राहुरादरम्॥ (द्र विद्याधर) (उपासका २१३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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