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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश अध्युपपन्न अद्धाकाले-से णं समयट्टयाए आवलियट्टयाए जाव ऋद्धि, रस और साता-इन तीन गौरवों में अत्यन्त आसक्त उस्सप्पिणीट्ठयाए। (भग ११.१२८) होने वाला। अध्वा पल्योपम समृद्धिरससातागौरवेषु अध्युपपन्ना गृद्धाः। असंख्य वर्षों का कालखण्ड। अध्वा पल्योपम के दो प्रकार (सूत्र १.२.५८ वृ प ७२) हैं-व्यावहारिक और सूक्ष्म। अध्रुव अवग्रहमति व्यावहारिक अध्वा पल्योपम-एक पल्य (कोठा) है जो एक व्यावहारिक अवग्रह का एक प्रकार। इन्द्रिय, उपयोग और योजन लंबा, एक योजन चौड़ा और एक योजन ऊँचा है। विषय-संबंध के होने पर भी कदाचित् विषय को बहु, उसकी परिधि कुछ अधिक तिगुनी (तीन योजन से कुछ बहुविध आदि पर्यायों के साथ ग्रहण करना और कदाचित् न अधिक) है। ऐसे पल्य को एक, दो, तीन दिन यावत् करना। उत्कृष्टतः सात रात के बढ़े हुए बालानों से लूंस-ठूस कर सतीन्द्रिये सति चोपयोगे सति च विषयसंबंधे कदाचित् तं घनीभूत कर भरा जाता है। उस कोठे से सौ-सौ वर्ष बीत विषयं तथा परिच्छिनत्ति कदाचिन्नेत्येतदध्रुवमवगृहातीत्यु- जाने पर एक-एक बालाग्र निकाला जाता है। जितने समय पदिश्यते। (तभा १.१६ वृ) में वह कोठा खाली हो जाता है, उतने काल को व्यावहारिक अध्वा पल्योपम कहा जाता है। इसका कोई प्रयोजन नहीं है, अध्रुवबन्धिनी केवल प्ररूपणा के लिए प्ररूपणा की जाती है। बंध का कारण मिलने पर भी जिस कर्म-प्रकृति का बंध हो सूक्ष्म अध्वा पल्योपम उन बालानों के असंख्य खण्ड कर भी सकता है और नहीं भी, जैसे-सातवेदनीय, असातवेदनीय, उस कोठे को ठसाठस भरा जाता है तथा प्रत्येक सौ-सौ वर्षों गतिचतुष्क आदि। से एक-एक खण्ड को निकाला जाता है। जितने समय में निजबंधहेतुसम्भवेऽपि भजनीयबंधा अधूवबन्धिन्यः। वह कोठा खाली हो जाता है, उतने काल को सूक्ष्म अध्वा (कप्र पृ २७) पल्योपम कहा जाता है। अधुवसत्ताक अद्धापलिओवमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा–सुहुमे य वावहारिए वह कर्म-प्रकृति, जिसकी सत्ता सब जीवों के सर्वदा नहीं य॥ होती, जैसे--उच्चगोत्र, सम्यक्त्व आदि। तत्थ णं जेसे वावहारिए, से जहानामए पल्ले सिया-जोयणं कदाचिद् भवन्ति कदाचिन्न भवन्तीत्येवमनियता सत्ता यासां आयाम-विक्खंभेणं, जोयणं उर्दू उच्चत्तेणं, तं तिगुणं ता अध्रुवसत्ताकाः। (कप्र पृ ३०) सविसेसं परिक्खेवेणं; से णं पल्ले गाहाअध्रुवोदया एगाहिय-बेयाहिय-तेयाहिय,उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं। वह कर्म-प्रकृति, जो कभी उदय में आती है, कभी अनुदय सम्मटे सन्निचिते, भरिए वालग्गकोडीणं॥ अवस्था में चली जाती है, कभी निमित्त मिलने पर फिर ते णं वालग्गे नो अग्गी डहेज्जा, नो वाऊ हरेज्जा, नो उदय में आ जाती है, जैसे-निद्रा, निद्रानिद्रा आदि।। कुच्छेज्जा, नो पलिविद्धंसेज्जा, नो पूइत्ताए हव्वमागच्छेज्जा। व्यवच्छिन्नोदया अपि सत्यो याः प्रकृतयो हेतुसम्पत्त्या तओ णं वाससए-वाससए गते एगमेगं वालग्गं अवहाय भूयोऽप्युदयमायान्ति ता अध्रुवोदयाः। (कप्र पृ २९) । जावइएणं कालेणं से पल्लेखीणे नीरए निल्लेवे निदिए भवइ। सुहमे अद्धापलिओवमे : से जहानामए पल्ले सिया-जोयणं अध्वाकाल आयाम-विक्खंभेणं, जोयणं उर्दू उच्चत्तेणं, तं तिगुणं समयक्षेत्र में होने वाली सूर्य की गति से पहचाना जाने वाला सविसेसं परिक्खेवेणं; से णं पल्लेव्यावहारिक काल, जैसे-समय, आवलिका आदि। गाहासूरकिरियाविसिट्ठो गोदोहाइकिरियासु निरवेक्खो। एगाहिय-बेयाहिय-तेयाहिय, उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढणं। अद्धाकालो भन्नइ समयक्खेत्तंमि समयाइ॥ सम्मट्टे सन्निचिते, भरिए वालग्गकोडीणं॥ (स्था ४.१३४ वृप १९९vate a personal use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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