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________________ १० और पुद्गलों की स्थिति में उदासीन भाव से अनन्य सहायक द्रव्य, जो द्रव्य की अपेक्षा से एक द्रव्य है, काल की अपेक्षा से शाश्वत है, भाव की अपेक्षा से अरूपी है, क्षेत्र की अपेक्षा से लोकप्रमाण है, असंख्येयप्रदेशी है। स्थानगतानां जीवपुद्गलानां स्थितावुदासीनभावेनाऽनन्यसहायकं द्रव्यमधर्मास्तिकायः ॥ यथा पथिकानां छाया । (जैसिदी १.५ वृ) दव्वओ णं अधम्मत्थिकाए एगे दव्वे । खेत्तओ लोगप्पमाणत्ते । कालओ....सासए । भावओ अवण्णे अगंधे अरसे अफासे । गुणओ ठाणगुणे ... एवं अधम्मत्थिकाए वि...... (भग २.१२६, १३५) (द्र धर्मास्तिकाय) अधिकरण दुर्गति की निमित्तभूत वस्तु - शरीर, इन्द्रिय, बाह्य उपकरण, शस्त्र आदि । अधिकरणं - दुर्गतिनिमित्तं वस्तु तच्च विवक्षया शरीरमिन्द्रियाणि च तथा बाह्य हलगन्त्र्यादिपरिग्रहः । (भग १६.८ वृ) अधिकरणी वह जीव, जो अविरति की अपेक्षा अधिकरण से युक्त होता है । अविरतिं पडुच्च जीवे अधिकरणी । (भग १६.९ वृ) अधोदिशाप्रमाणातिक्रम दिग्व्रत का एक अतिचार । अधोदिशा में जाने के नियत प्रमाण का अनजान में अथवा किसी अन्य कारणवश अतिक्रमण करना । (द्र ऊर्ध्वदिशिप्रमाणातिक्रम) अधोलोक लोक का निम्न भाग, जो सात रज्जु से कुछ अधिक है। (देखें चित्र पृ ३४१ ) अधोभागस्थितत्वादधोलोकः सातिरेकसप्तरज्जुप्रमाणः । (स्था ३.१४२ वृ प १२१ ) अधोवधि देशावधि, नियत क्षेत्र को प्रत्यक्ष जानने वाला अवधिज्ञानी । Jain Education International अधोऽवधिरात्मा - नियतक्षेत्रविषयावधिज्ञानी । (द्र देशावधि) अधोव्यतिक्रम (द्र अधोदिशाप्रमाणातिक्रम) जैन पारिभाषिक शब्दकोश अध्यवतर अहिगं तु तंदुलादी, छुब्भति अज्झोयरो उड .... । (स्था २.१९३ वृ प ५७) (तसू ७.२५) (द्र अध्यवपूरक) अध्यवपूरक उद्गम दोष का एक प्रकार। अपने लिए बनाए जा रहे भोजन साधुओं के निमित्त अधिक मिलाकर बनाया हुआ आहार । अध्यवपूरके तु पूर्वं स्तोकमेव तन्दुलादिर्गृह्यते, पश्चादधिकप्रक्षेपः । (पिनि ९३ वृ प ७२) (द्र अध्यवसान) (जीभा १२८४) अध्यवसान १. अन्तःकरण का परिणाम, भावात्मक चेतना । 'अध्यवसाने' इत्यन्तःकरणपरिणामे । For Private & Personal Use Only (द्र अध्यवसाय) २. आयुष्य के उपक्रम (अपमृत्यु) का एक हेतु। राग, स्नेह, भय आदि की तीव्रता । अध्यवसानम् - रागस्नेहमयात्मकोऽध्यवसायः । (उ १९.७ शावृ प ४५२) अध्यवसाय वह चेतना, जो कर्म - शरीर के साथ काम करती है। (भग १.३५६भा) (जैसिदी ७.३३ वृ) अध्यात्म वह प्रवृत्ति, जो आत्मा को केन्द्र में रखकर की जाती है । अप्पाणमधिकरेऊण जं भवति तं अज्झप्पं । (द १०.१५ अचू पृ २४१ ) www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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