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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश २४७ पापकर्म का दसवां प्रकार। रागात्मक प्रवृत्ति से होने वाला अशुभ कर्म का बंध। (आवृ प७२) (द्र प्रेयस्पाप) रिष्टा अधोलोक (नरक) की पांचवीं पृथ्वी का नाम । (स्था ७.२३) (द्र अञ्जना) राग पापस्थान वह कर्म, जिसके उदय से जीव राग में प्रवृत्त होता है। (झीच २२.२२) (द्र मान पापस्थान) राजपिण्ड अनाचार का एक प्रकार। मूर्धाभिषिक्त राजा के घर से भिक्षा लेना, जो मुनि के लिए अनाचरणीय है। मुद्धाभिसित्तस्स रण्णो भिक्खा रायपिण्डो। (द ३.३ अचू पृ६०) राजप्रश्नीय उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें कुमार श्रमण केशी और राजा प्रदेशी का संवाद है। (नन्दी ७७) रात्निक आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधु, जो दीक्षा-पर्याय में ज्येष्ठ हों अथवा ज्ञान, दर्शन और चारित्र में ज्येष्ठ हों। राइणिएस"आयरिओवज्झायादिसु सव्वसाधुसु वा अप्पणातो पढमपव्वतियेसु । रातिणिया पुव्वदिक्खिता। (द ८.४० अचू पृ १९५) 'रत्नाधिकेषु' ज्ञानादिभावरत्नाभ्युच्छ्रितेषु। (दहावृ प २५२,२५३) रत्नाधिकः-पर्यायज्येष्ठः ज्ञानदर्शनचारित्राधिको वा। (प्रसा १०२ वृ) रात्रिभक्त अनाचार का एक प्रकार। रात्रि में आहार लेना एवं खाना, जो मुनि के लिए अनाचरणीय है। यदनाचरितं... रात्रिभक्तं रात्रिभोजनम्। (द ३.२ हावृ प ११६) राष्ट्रधर्म लोकधर्म का एक प्रकार। राष्ट्र की व्यवस्था और उसकी आचार-संहिता। राष्ट्रधर्मो-देशाचारः। (स्था १०.१३५ वृ प ४८९) रुक्मी वह वर्षधर पर्वत, जो रम्यक वर्ष से उत्तर में, हैरण्यवत वर्ष से दक्षिण में, पूर्वी लवणसमुद्र से पश्चिम में, पश्चिमी लवणसमुद्र से पूर्व में स्थित है। यह रम्यक और हैरण्यवतइन दोनों के मध्य विभाजन-रेखा का काम करता है। रम्मगवासस्स उत्तरेणं, हेरण्णवयवासस्स दक्खिणेणं, पुरस्थिमलवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरस्थिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे रुप्पी णाम वासहरपव्वए पण्णत्ते। (जं ४.२६८) रम्यकहैरण्यवतयोर्विभक्ता रुक्मी। (तभा ३.११ वृ) रुचक प्रदेश १. तिरछे लोक के आठ आकाशप्रदेशों की एक विशिष्ट रचना, जहां से दस दिशाएं प्रवाहित होती हैं। (देखें चित्र पृ ३४१) एत्थ णं तिरियलोगमझे अट्ठपएसिए रुयए पण्णत्ते, जओ णं इमाओ दस दिसाओ पवहंति। (भग १३.५०) "क्षुल्लकप्रतरयोः"तत्र चोपरितने प्रतरे चत्वारः प्रदेशा गोस्तनवदितरत्रापि चत्वारस्तथैवेति। (स्था १०.३० वृ प ४५५) .."वियत्प्रदेशाष्टकनिर्माणो रुचकश्चतुरस्राकृतिः। (तभा ३.१० वृ पृ २५४) २. आठ केन्द्रीय आत्मप्रदेश। (द्र मध्यप्रदेश) रुचि १. शुद्ध, अशुद्ध और मिश्र पुञ्ज की अवस्था में होने वाला तत्त्वों का श्रद्धान। शुद्धाशुद्धमिश्रपुञ्जत्रयरूपं मिथ्यात्वमोहनीयम् रुचिस्तु तदुदयसम्पाद्यं तत्त्वानां श्रद्धानम्। (स्था ३.३९३ वृ प १४१) २. सम्यग्दर्शन । तत्त्व के प्रति आकर्षण। रुचिः-तत्त्वाभिलाषरूपा। (उशावृ प५६३) शाला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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