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________________ २४६ जैन पारिभाषिक शब्दकोश कर्मादान का एक प्रकार । मद्य, मांस, दूध, दही आदि का विक्रय। 'रसवाणिज्जे'त्ति मद्यादिरसविक्रयः। (भग ८.२४२ ७) रसनेन्द्रिय वीर्यान्तराय और प्रतिनियत (रसना) इन्द्रियावरण के क्षयोपशम तथा अङ्गोपाङ्ग नामकर्म के उदय का आलम्बन लेकर आत्मा जिसके द्वारा रस को ग्रहण करती है। वीर्यान्तरायप्रतिनियतेन्द्रियावरणक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामलाभावष्टम्भात्""रसयत्यनेनात्मेति रसनेन्द्रियम्। (तवा २.१९) रसनेन्द्रिय असंवर (आश्रव) (स्था ५.१३८) (द्र जिह्वेन्द्रिय असंवर (आश्रव)) रसनेन्द्रियनिग्रह (स्था ५.१३८) (द्र जिह्वेन्द्रियनिग्रह) रसनेन्द्रिय प्रत्यक्ष (नन्दीचू पृ १४) (द्र जिह्वेन्द्रिय प्रत्यक्ष) रसनेन्द्रियप्राण वह प्राण, जो चखने की शक्ति के लिए उत्तरदायी है। (प्रसा १०६६) रसविपाक वह कर्म-प्रकृति, जिसका विपाक मंद अथवा तीव्र रस के अनुरूप होता है। रसं मुख्यीकृत्य विपाको निर्दिश्यमानो यासांता: रसविपाकाः। (कप्र पृ ३७) रसविवर्जन बाह्य तप का एक प्रकार । रसों का विवर्जन करना। खीरदहिसप्पिमाई, पणीयं पाणभोयणं। परिवजणं रसाणं तु, भणियं रसविवजणं॥ (उ ३०.३६) (द्र रसपरित्याग) राक्षस वानमन्तर देव का छठा प्रकार। इस जाति का देव विमल आभा वाला, भयानक आकृति वाला, विशाल शिर वाला, लम्बे और लाल होंठ वाला, स्वर्णाभूषण पहनने वाला, नाना प्रकार के विलेपन करने वाला होता है। उसका चिह्न हैखट्वांग-सोटा या लकड़ी, जिसके सिर पर खोपड़ी जड़ी हो। राक्षसा अवदाता भीमा भीमदर्शनाः शिरःकराला रक्तलम्बौष्ठाः तपनीयविभूषणा नानाभक्तिविलेपनाः खट्वाङ्गध्वजाः। (तभा ४.१२) रसनेन्द्रियरागोपरति (स्था ५.१३७) (द्र जिह्वेन्द्रियरागोपरति) रसनेन्द्रिय संवर (स्था ५.१३७) (द्र जिह्वेन्द्रिय संवर) रसपरित्याग बाह्य तप का एक प्रकार। घी, दूध, दही आदि रसोंविकृतियों का परित्याग करना, आयंबिल आदि करना। से किं तं रसपरिच्चाए ? रसपरिच्चाए अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा-निव्विइए, पणीयरसपरिच्चाए, आयंबिलए, आयामसित्थभोई, अरसाहारे, विरसाहारे, अंताहारे, पंताहारे, लूहाहारे। से तं रसपरिच्चाए। (औप ३५) रसवाणिज्य राग प्रीत्यात्मक जीवपरिणाम, जिसका माया और लोभ के रूप में संवेदन होता है, जैसे-दृष्टिराग, विषयराग, स्नेहराग। जं रायवेयणिज्जं समुइण्णं भावओ तओ राओ। सो दिट्ठि-विसय-नेहाणुरायरूवो अभिस्संगो॥ कुप्पवयणेसु पढमो बिइओ सद्दाइएसु विसएसु। विसयादनिमित्तो वि हु सिणेहराओ सुयाईसु॥ (विभा २९६४, २९६५) रागो विवागपच्चडयो: माया-लोभ-हस्स-रदि-तिवेदाणं दव्वकम्मोदय-जणिदत्तादो। (धव पु१४ पृ ११) राग पाप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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