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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश अनुरूप भावित करने की प्रक्रिया । भाव्यत इति भावना ध्यानाभ्यासक्रियेत्यर्थः । ( आवहावृ २ पृ ६२ ) ४. वह अभ्यास, जिसके द्वारा महाव्रतों को परिपक्व किया जा सकता है। भावनाः । भाव्यन्ते वास्यन्ते गुणविशेषमारोप्यन्ते महाव्रतानि यकाभिस्ता ( योशा १.२५ वृ पृ १२१ ) ५. संक्लेशयुक्त चित्त से होने वाला व्यवहार और आचरण । कंदप्पमाभिओगं, किब्बिसियं मोहमासुरत्तं च । एयाओ दुग्गईओ मरणम्मि विराहिया होंति ॥ (उ ३६.२५६) भावनिक्षेप निक्षेप का एक प्रकार । विवक्षित क्रिया में परिणत वस्तु । जैसे- उपाध्यायत्व का कार्य करने वाला उपाध्याय । विवक्षितक्रियापरिणतो भावः । (जैसिदी १०.९) भावनिर्जरा शुद्ध परिणाम से होने वाली कालों की आत्मा से विच्युति । कर्म - पुद्गलों की कर्मत्वरूप से विच्युति । आत्मनः शुद्धभावेन गलत्येतत्पुराकृतम् । वेगाद् भुक्तरसं कर्म सा भवेद् भावनिर्जरा ॥ (जम्बूच १३.१२७) भावनिर्जरा नाम कर्मत्वपर्यायविगमः पुद्गलानाम् । (भआ १८४१ विवृ) भावपरमाणु वर्ण, गंध, रस, स्पर्श लक्षण वाला । भावपरमाणू वणमंते, गंधमंते, रसमंते, फासमंते । (भग २०.४१ ) भावपाप वह अशुभ कर्मपुद्गलसमूह, जो उदय-अवस्था में आ रहा है । अनुदयमानाः सदसत्कर्मपुद्गला बन्धः - द्रव्यपुण्यपापे, तत्फलानर्हत्वात्। उदयमानाश्च ते क्रमशो भावपुण्यपापे, तत्फलार्हत्वाद् । (जैसिदी ४.१५ वृ) भावपुण्य Jain Education International वह शुभ कर्मपुद्गलसमूह, जो उदय-अवस्था में आ रहा है । (जैसिदी ४.१५ वृ) (द्र भावपाप) २१५ भावप्रमाण वह भाव, जिससे वस्तु की प्रमिति की जाती है। भाव एव प्रमाणं भावप्रमाणं, भावसाधनपक्षे प्रमितिःवस्तुपरिच्छेदस्तद्धेतुत्वाद् भावस्य प्रमाणताऽवसेया, तच्च भावप्रमाणम् । ( अनु ५०६ मवृ प १९४) भावप्राणातिपात ( दहावृ प १४५) (द्र भावहिंसा) भावबन्ध जीव का वह परिणाम, जिससे कर्मपुद्गलों का ग्रहण होता 1 (द्र द्रव्यबन्ध) भावमन जीव का वह परिणाम, जिसके द्वारा मनोवर्गणा के सहयोग से मननात्मक प्रवृत्ति होती है। जीवो पुणमणपरिणामक्रियावण्णे भावमणो। एस उभयरूपो मणदव्वालंबणो जीवस्स नाणवावारो भावमणो भण्णति । (नन्दीचू पृ ३५ ) (द्र मन) भावलेश्या १. योगवर्गणा के अन्तर्गत पुद्गलों की सहायता से होने वाला आत्मपरिणाम, शुभ और अशुभ रूप जीव का परिणाम । कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यादात्मन: परिणामविशेषः । २. चैतसिक आभामण्डल । (द्र द्रव्यलेश्या) भावलेश्या तु शुभाशुभरूपो जीवपरिणामः । (प्रज्ञावृ प ३३० ) (बृभा १६४० वृ) भावलोक लोक का वह स्वरूप, जिसकी व्याख्या भाव - पर्याय के आधार पर की जाती है। भावा -औदयिकादयस्तद्रूपो लोको भावलोकः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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