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________________ २१४ जैन पारिभाषिक शब्दकोश भावआश्रव वह आत्मपरिणाम, जिससे पुदगलद्रव्य कर्मरूप में परिणत होकर आत्मा के साथ संबंध करते हैं। आसवदि जेण कम्मं परिणामणप्पणो स विण्णेओ। भावासवो जिणुत्तो . । (बृद्रसं २९) मिच्छत्ताइचउक्कं जीवे भावासवं भणियं। (नच १५१) (द्र द्रव्यआश्रव) भावकर्म १. द्रव्यकर्म की फलदान की शक्ति। २. कर्म के विपाक से होने वाली औदयिक अवस्था। पोग्गलपिंडो दव्वं तस्सत्ती भावकम्मं तु। (गोक ६) । कार्ये कारणोपचारात्तु शक्तिजनिताज्ञानादिर्वा भावकर्म भवति। (गोकजीप्र ७.७.९) प्राणियों का व्यपदेश किया जाता है। दिश्यते अयममुकः संसारीति यया सा दिक भाव:पृथिवीत्वादिलक्षण: पर्यायः। (आवमवृ प ४३९) दिश्यते नारकादित्वेनास्यां संसारीति दिक। (उशावृ प २७६) २. वे दिशाएं-उत्पत्ति स्थान, जिनमें जीव कर्म के वशीभूत होकर भ्रमण करता है। अट्ठारस भावदिसा जीवस्स गमागमो जेसु॥ पुढवि-जल-जलण-वाया मूला-खंध-ग्ग-पोरबीया य। बि-ति-चउ-पंचिंदिय-तिरिय-नारगा देवसंघाया। संमुच्छिम-कम्माऽकम्मभूमगनरा तहंतरद्दीवा। भावदिसा दिस्सइ जं संसारी निययमेयाहिं। (विभा २७०२-२७०४) भावदेव वह जीव, जो देव-आयुष्य का अनुभव कर रहा है। जे इमे भवणवइ-वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया देवा देवगतिनामगोयाई कम्माइं वेदेति।से तेणद्वेणंभावदेवा। (भग १२.१६८) भावधुत वह साधक, जो देव, मनुष्य तथा तिर्यञ्च संबंधी उपसर्गों को सहन कर कर्मों का धनन करता है। अहियासित्तुवसग्गे, दिव्वे माणुस्सए तिरिक्खे य। जो विहुणइ कम्माई, भावधुतं तं वियाणाहि। (आनि २५२) भावग्रासैषणा भोजन करते समय अपने आपको अनुशासित करना। अंगार, धूम, संयोजना, प्रमाणातिरेक और कारण-इन पांच माण्डलिक दोषों का वर्जन करना। अह होइ भावघासेसणा उ अप्पाणमप्पणा चेव। साहू भुंजिउकामो अणुसासइ निज्जरट्ठाए। (ओनि ५४४) """संजोयणा पमाणं च। इंगाल धूम कारण ॥ (पिनि १) घासेसणा उ भावे, होइ पसत्था तहेव अपसत्था। अपसत्था पंचविहा, तव्विवरीया पसत्था उ॥ (पिनि ६३५) (द्र परिभोगैषणा) भाव जीव द्रव्य जीव की ज्ञान आदि गुणों में परिणति। ज्ञानादिगुणपरिणतिभावत्वेन विवक्षितो भावजीवः। __(तभा १.५ वृ पृ ४५) द्रव्य तो जीव सासतो एक, तिण रा भाव कह्या छै अनेक। भाव ते लखण गुण परज्याव, ते तो भावे जीव छै ताय॥ (नवप १.२५) (द्र भाव आत्मा) भावना १. लक्ष्य के अनुरूप होने का पुनः पुनः अभ्यास करना। संकल्प के द्वारा चित्त को भावित करने की प्रक्रिया। पुनः पुनरासेवनमभ्यासो वा भावना। (जैसिदी ६.२०) भाव्यते-आत्मसान्नीयतेऽनयाऽऽत्मेति भावना। (उ ३६.२६३ शावृ प ७१०) २. चित्त की शुद्धि, मोह-विलय और विशिष्ट संस्कारों को स्थापित करने के लिए किया जाने वाला वैराग्य आदि का अभ्यास। चेतोविशुद्धये मोहक्षयाय स्थैर्यापादनाय विशिष्टसंस्काराधानं भावना। __(मनो ३.१८) ३. ध्यान का अभ्यास करने के लिए चित्त को ध्यान के भाव दिशा १. वह दिशा. जिससे पथ्वी नारक आदि के रूप में संसारी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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