SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जन पारिभाषिक शब्दकाश है। 'ओदइए उवसमिए खइए य तहा खओवसमिए य। भावादेश परिणामसन्निवाए य छव्विहो भावलोगो उ॥' वस्तु का वह निरूपण, जो भाव (पर्याय) की अपेक्षा से (भग ११.९० वृ) किया जाता है। भावव्युत्सर्ग 'भावादेसेण' त्ति एकगुणकालकत्वादिना 'सव्वपोग्गला व्युत्सर्ग का एक प्रकार। इसमें कषाय, संसार और कर्म का सपएसावी' त्यादि। (भग ५.२०२ वृ) विसर्जन किया जाता है। भावार्थ भावविउस्सग्गे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-कसायविउस्सग्गे भाव-पर्याय की दृष्टि से किया जाने वाला विचार। संसारविउस्सग्गे कम्मविउस्सग्गे। (औप ४४) 'भावट्ठयाए'त्ति नारकादिपर्यायत्वेनेत्यर्थः। (द्र व्युत्सर्ग) (भग ७.५९ वृ) भावशस्त्र (आभा पृ ३४) भावितात्मा (द्र शस्त्र) १. वह अनगार, जिसकी आत्मा ज्ञान, दर्शन, चारित्र और विविध प्रकार की अनित्य आदि भावनाओं से भावित होती भावश्रुत इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला द्रव्यश्रुतानुसारी सम्मइंसणेण बहुविहेहि य तवोजोगेहि अणिच्चयादिभावज्ञान। णाहि य भावितप्पा। (दचूला १.९ अचू पृ २५६) इंदिय-मणोनिमित्तं जं विण्णाणं सुयाणुसारेणं। २. वह अनगार, जो अर्धपर्यस्तिका आसन में बैठकर अथवा निययत्थुत्तिसमत्थं तं भावसुयं" शीर्षासन की मुद्रा में आकाश में उड़ सकता है। (विभा १००) ......"अणगारे वि भावियप्पा एगओ पल्हत्थियकिच्चगएणं (द्र द्रव्यश्रुत) अप्पाणेणं उर्दु वेहासं उप्पएन्जा। (भग ३.२०५) भावसत्य से जहानामए वग्गुली सिया, दो वि पाए उल्लंबिया-उल्लंबिया उड्ढपादा अहोसिरा चिट्ठज्जा, एवामेव अणगारे विभाविअप्पा १. अन्तरात्मा की पवित्रता। वग्गुलीकिच्चगएणं अप्पाणेणं उ8 वेहासं उप्पएज्जा। २. वह चेतना, जो परमार्थ के अनुकूल होती है। (भग १३.१५२ वृ) 'भावसत्येन' शुद्धान्तरात्मतारूपेण पारमार्थिकावितथत्वेन। (उ २९.५१ शावृ प ५९१) भाविताभावित ३. सत्य का एक प्रकार, व्यक्त पर्याय के आधार पर वस्तु का द्रव्यानुयोग का एक प्रकार। द्रव्यान्तर से प्रभावित या प्रतिपादन करना, जैसे-बलाका सफेद है। अप्रभावित होने के आधार पर द्रव्यों का विचार करना। भावं-भूयिष्ठशुक्लादिपर्यायमाश्रित्य सत्यं भावसत्यम्। 'भावियाभाविए' त्ति भावितं-वासितं द्रव्यान्तरसंसर्गतः यथा शुक्ला बलाकेति, सत्यपि हि पञ्चवर्णोत्कटत्वात् अभावितमन्यथैव यत्, यथा जीवद्रव्यं भावितं किञ्चित्, शुक्लेति। तच्च प्रशस्तभावितमितरभावितं च, तत्र प्रशस्तभावितं (स्थावृ प ४६५) संविग्नभावितमप्रशस्तभावितं चेतरभावितं, तत् द्विविधमपि वामनीयमवामनीयं च, तत्र वामनीयं यत्संसर्गजं गुणं दोषं वा भावहिंसा संसर्गान्तरेण वमति, अवामनीयं त्वन्यथा, अभावितं जीववध का संकल्प। जैसे कोई व्यक्ति मंद प्रकाश में रज्जु त्वसंसर्गप्राप्त प्राप्तसंसर्ग वा वज्रतन्दुलकल्पं न वासयितुं को सांप समझकर उसका छेदन करता है। शक्यमिति, एवं घटादिकं द्रव्यमपि, ततश्च भावितं च जहा केवि पुरिसे मंदमंदप्पगासप्पदेसे संठियं ईसिवलि- अभावितंच भाविताभावितम्, एवम्भतो विचारो द्रव्यानयोग अकायं रज्जु पासित्ता एस अहि त्ति तव्वहपरिणामपरिणए (स्था १०.४६ वृप ४५६) णिकड्डियासिपत्ते दुअं दुअंछिंदिज्जा एसा भावओ हिंसा न दव्वओ। (दहावृ प २४,२५) Jain Education International Für Vate & Personal Use Only www.jainelibrary.org इति।
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy