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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश २१३ 'भवादेसेणं' ति भवप्रकारेण भवमाश्रित्येत्यर्थः। (भग ११.३० वृ) करना। 'भाडीकम्मे' त्ति भाट्या--भाटकेन कर्म अन्यदीयद्रव्याणां शकटादिभिर्देशान्तरनयनं गोगृहादिसमर्पणं वा भाटीकर्म। (भग ८.२४२ वृ) भवायु भवस्थिति-वह आयु, जिसके आधार पर जीव एक जन्म में एक अवधि तक जीता है। भवप्रधानमायुर्भवायुः, यद् भवात्यये अपगच्छत्येव न कालान्तरमनुयाति। (स्था २.२६२ वृ प ६३) भवोपनाही कर्म केवलीवीतराग के विद्यमान चार कर्म (वेदनीय, नाम, गोत्र, आयुष्य), जो भवस्थिति के उपग्राहक हैं। जंपति य वीयरागो य भवोवग्गाहिकम्मुणो उदया। तेणेव पगारेणं वेदिज्जति जंतयं कम्मं ।। (धसं १२९१) (द्र भवधारणीय कर्म) भवोपपातगति नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव भव के उपपात से संबद्ध । गति। उपपात"भवः-कर्मसम्पर्कजनितो नैरयिकत्वादिकः पर्यायः, भवन्ति कर्मवशवर्तिनः प्राणिनोऽस्मिन्निति भवः । (प्रज्ञा १६.३१ वृ प ३२८) भामण्डल महाप्रातिहार्य का एक प्रकार । अर्हत् के मस्तक के पीछे होने वाला आभावलय। ईसिं पिट्ठओ मउडठाणमि तेयमंडलं अभिसंजायइ, अंधकारे विय णं दस दिसाओ पभासेइ। (सम ३४.१.१२) तीर्थकरकायतः प्रकृतिभास्वरात्तदीयनिरुपमरूपाच्छादकमतुच्छं प्रभापटलं सम्पिण्ड्य जिनशिरस: पश्चाद्भागे मण्डलायमानं भामण्डलमातन्यते। (प्रसावृप १०६) भाव १.कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम से होने वाला जीव का स्पन्दन। २. स्वभाव और प्रयत्न से होने वाला जीव और अजीव का परिणमन। मोहृदयखओवसमोवसमखयजजीवफंदणं भावो। (गोजी ५३६) भव्य भव्या अनादिपारिणामिकसिद्धिगमनयोग्यतायुक्ताः, तद्विपरीता अभव्याः। (नन्दीमवृ प २४७) (द्र भवसिद्धिक) कर्मणामुदयविलयजनितः चेतनापरिणामो भावः। परिणमनं वा। (जैसिदी २.४१,४२) भावअवमोदरिका कषाय का अल्पीकरण। भावोमोदरिया अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहा-अप्पकोहे, अप्पमाणे, अप्पमाए, अप्पलोहे, अप्पसद्दे, अप्पझंझे। (औप ३३) भव्यद्रव्यदेव वह जीव, जो मृत्यु के बाद देवगति में उत्पन्न होगा। भव्या-भाविदेवपर्याययोग्या अत एव द्रव्यभूताः ते च ते देवाश्चेति भव्यद्रव्यदेवाः-वैमानिकादिदेवत्वेनानन्तरभवे ये उत्पत्स्यन्ते। (स्था ५.५३ ७ प २८८) जे भविए पंचिंदयतिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा देवेसु । उववन्जित्तए। से"भवियदव्वदेवा॥ (भग १२.१६४) भाटककर्म कर्मादान का एक प्रकार। भाड़ा लेकर माल की ढुलाई भाव आत्मा १. भाव रूप आत्मा, ज्ञान-दर्शन-चरणमयी आत्मा। भावाया तिन्नि नाणमाईणि।.... 'भावात्मानो' भावरूपा आत्मानः""आत्मनो हि पारमार्थिकं स्वस्वरूपं ज्ञानदर्शनचरणात्मकम्। (पिनि १०४ वृ प ४२) २. द्रव्य आत्मा की विविध अवस्थाएं, गुण-पर्यायात्मक आत्मा। (द्र भाव जीव) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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