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________________ २१२ (द्र भवोपग्राही कर्म भवधारणीय शरीर १. स्वाभाविक वैक्रियशरीर। वैक्रिय शरीरवाले (देव और नारक) जीव का वह शरीर, जो जीवन पर्यन्त रहता है। औपपातिकं वैक्रियं शरीरं, तन्निमित्तत्वादवधिवत् सहजम्, तच्च सामर्थ्यान्नारकदेवानामेव । (तभा २.४७ वृ पृ २०७) 'भवधारणिज्ज' त्ति, भवधारणं - निजजन्मातिवाहनं प्रयोजनं येषां तानि भवधारणीयानि, आजन्मधारणीयानीत्यर्थः । (भग १.२२६ वृ) २. वह अम्बापैतृक शरीर, जो मनुष्य आदि भव धारण करने में उपग्राहक होता है- माता-पिता के अङ्गों से प्रभावित होता है। अम्मापे जावइयं से कालं भवधारणिज्जे सरीरए अव्वावन्ने भवइ एवतियं कालं संचिट्ठ (भग १.३५२) 'भवधारणीयं' भवधारणप्रयोजनं मनुष्यादिभवोपग्राहक मित्यर्थः । (भग १.३५२ वृ) भवनपति (द्र भवनवासी) भवनवासी चार देवनिकायों में से पहला देवनिकाय, जिसका आवास रत्नप्रभा पृथ्वी के गर्भ में भवनों में है । प्रथमो देवनिकायो भवनवासिनः । तत्र भवनानि रत्नप्रभायां बाहल्यार्धमवगाह्य मध्ये भवनेषु वसन्तीति भवनवासिनः । (तभा ४.११ ) (स्था १.२०० ) (द्र भौमेय देव) भवप्रत्यय अवधिज्ञान वह अवधिज्ञान, जिसकी उत्पत्ति का मुख्य हेतु भव बनता है । यह देवों और नैरयिकों के होता है। भव एव प्रत्ययः कारणं यस्य तद्भवप्रत्ययम् । ( नन्दी २२.१ हावृ पृ २९ ) दुहं भवपच्चइयं तं जहा - देवाण य नेरइयाण य । ( नन्दी ६) भवविपाक Jain Education International जैन पारिभाषिक शब्दकोश (कग्र ५.२० ) (द्र भवविपाकिनी) भवविपाकिनी वह कर्म-प्रकृति, जिसका आयुबंध के अनुरूप भव में विपाक होता है । जैसे-नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव भव । भवे नारकादिरूपे स्वयोग्ये विपाकः फलदानाभिमुख्यं यासां ताः भवविपाकिन्यः । ( क प्र पृ३५) भववीर्य नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव में होने वाली जन्मजात साधारण अथवा असाधारण शक्ति । भववीरियं णिरयभवादिसु । तत्थ णिरयभववीरियं इमं जंतासिकुंभिचक्ककंदुपयणभट्ठसोल्लणसिंबलिसूलादीसु भिज्जमाणाणं महंतवेदणोदये वि जं ण विलिज्जति । तिरियाण य वसभातीण महाभारुव्वहणसामत्थं । मणुयाण सव्वचरणपडि वत्तिसामत्थं । देवाण वि पंचविहपज्जत्पत्तणंतरमेव जहाभिलसियरूवविउव्वसामत्थं । (निभा ४७ चू) भवसिद्धिक वह जीव, जो भव्य है, जिसमें मुक्त होने की योग्यता है । भविष्यतीति भवा भवसिद्धिः - निर्वृत्तिर्येषां ते भवसिद्धिकाः भव्याः इत्यर्थः । (भग १.२९२ वृ) (द्र भव्य ) भवस्थकेवलज्ञान वह केवलज्ञान, जो शरीरधारी मनुष्य के होता है । भवे तिष्ठतीति भवस्थः, तस्य केवलज्ञानं भवस्थकेवलज्ञानम् । (नंदी २६ हावृ पृ ३७) भवस्थिति भवायु - वर्तमान जीवन के आयुष्य का कालमान । भवे भवरूपा वा स्थितिः भवस्थितिर्भवकाल इत्यर्थः । (स्था २.२५९ वृ प ६२) For Private & Personal Use Only (तु. कायस्थिति ) भवादेश जीव का वह प्रज्ञापन, जो भव (जन्मग्रहण) की अपेक्षा से किया जाता I www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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