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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश २११ जाई उडलोतियाणि दव्वाणि ताणि झाति, तमाए हिट्ठिल्लाई""एवं एसा दसहिं दिवसेहिं बावीसइमेण णिट्ठाति।। (आवनि ५३० चू पृ३००) (द्र महाभद्र) भावयेत्। (तभा ७.३ वृ) न भाइयव्वं भयस्स वा वाहिस्स वा रोगस्स वा जराए वा मच्चुस्स वा अण्णस्स वा एवमादियस्स।एवं धेज्जेण भाविओ भवइ अंतरप्पा। (प्रश्न ७.२०) भद्रासन बैठने की वह मुद्रा, जिसमें एक पदतल नीचे, बीच में मुष्क । (अण्डकोष) अथवा जननेन्द्रिय भाग, उस पर दूसरा पदतल स्थापित किया जाता है तथा नाभि के पास एक हाथ पर दूसरा हाथ रखा जाता है। सम्पुटीकृत्य मुष्काग्रे तलपादौ तथोपरि। पाणिकच्छपिकां कुर्याद् यत्र भद्रासनं तु तत्॥ (योशा ४.१३०) भय नोकषाय चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से भयरहित व्यक्ति में भी भय उत्पन्न होता है। यदुदयेन भयवर्जितस्यापि जीवस्येहलोकादिसप्तप्रकारं भयमुत्पद्यते तद् भयकर्म। (स्था ९.६९ ७ प ४४५) २. मोहनीय कर्म की एक प्रकृति से उत्पन्न होने वाला आत्मा का भयात्मक परिणाम। मोहनीयप्रकृतिसमुत्थ आत्मपरिणाम: भयम्। (स्था ७.२७ वृ प ३६९) भयसंज्ञा भयवेदनीय कर्म के उदय से होने वाला भयात्मक संवेदन। भयमोहनीयोदयात् भयोद्धान्तस्य दृष्टिवदनविकाररोमाञ्चो दादिक्रिया भयसंज्ञा। (प्रज्ञा ८.११ वृ प २२२) भरतक्षेत्र हिमवान और पूर्व, दक्षिण व पश्चिम तीन समुद्रों का मध्यवर्ती क्षेत्र, जो गङ्गा, सिन्धु और वैताढ्य (हिमालय) के द्वारा छः भागों में विभक्त है। वह कर्मभूमि क्षेत्र, जिसका नामकरण 'भरत चक्रवर्ती' के नाम से जुड़ा हुआ है। हिमवतोऽद्रेस्त्रयाणां समुद्राणां पूर्वदक्षिणाऽपराणां मध्ये भरतो वेदितव्यः। स पुनर्गङ्गासिन्धूभ्यां विजयार्धेन च षड्भागसंविभक्तः। (तवा ३.१०.३) भरतो नामाद्यश्चक्रधरः षट्खण्डाधिपतिः। अवसर्पिण्यां राज्यविभागकाले तेनादौ भुक्तत्वात, तद्योगाद् भरत इत्याख्यायते वर्षः। (तवा ३.१०.१) (द्र महाविदेह) भय दान वह दान, जो भय से दिया जाता है। भयाद् यद्दानं तद् भयदानम्। (स्था १०.१७ वृ प ४७०) भय प्रतिषेवणा प्रतिषेवणा का एक प्रकार। भयवश होने वाला प्राणातिपात आदि का आसेवन। भयंच-भीतिः नपचौरादिभ्यः प्रद्वेषश्च-मात्सर्यं भयप्रद्वेष तस्माच्च प्रतिषेवा भवति। (स्था १०.६९ वृ प ४६०) भयविवेक सत्य महाव्रत की एक भावना। भय का विवेचन करना, भय का प्रत्याख्यान करना तथा अभय से स्वयं को भावित करना। भयशीलो भीरुस्तच्चैहिकादिभेदात सप्तधा मोहनीयकर्मोदयजनितमुदयाच्च तस्यानृतभाषणं सलभं भवतीत्यभीरुत्वं भव चार गतियों में से किसी एक गति में जन्म लेना। आयुष्यकर्म और नामकर्म के उदय के निमित्त से होने वाला जीव का पर्याय। आयर्नामकर्मोदयविशेषापादितपर्यायो भवः। (तवा १.२१.१) भवआयुष्य (स्था २.२६२) (द्र भवस्थिति) भवधारणीय कर्म वे कर्म, जो भवधारणा में योगभूत हैं, जिनका क्षय होने पर जीव मुक्त होता है। जोगे निरंभिऊण सेलेसिं पडिवज्जड. भवधारणिज्जकम्मखयट्ठाए।"खवेउं सिद्धिं गच्छइ। (दजिचू पृ १६३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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