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________________ २१० जैन पारिभाषिक शब्दकोश भक्तपानव्युच्छेद स्थूलप्राणातिपातविरमण व्रत का एक अतिचार । १. पालतू पशुओं को समय पर चारा, पानी आदि नहीं देना। २. क्रोध आदि के आवेश में तथा दर्भावनावश अपने आश्रित कर्मकरों की वृत्ति (आजीविका) का विच्छेद करना। 'भत्तपाणवोच्छेए'त्ति अशनपानीयाद्यप्रदानम्। (उपा १.३२ वृ पृ१०) नराणां गोमहिष्यादितिरश्चां वा प्रमादतः। तृणाद्यन्नादिपातानां निरोधो व्रतदोषकृत्॥ (लासं ४.२७१) भक्तपानसम्भोज सांभोजिक साधुओं के पारस्परिक व्यवहार का एक प्रकार। आहार-पानी का लेन-देन। साम्भोगिकः साम्भोगिकेन सार्द्धमदगमोत्पादनैषणादोषैविशुद्धं गृह्णन् शुद्धः। (सम १२.२ ७ प २१) (द्र शुश्रूषा विनय) अर्हदाचार्येषु बहुश्रुतेषु प्रवचने च भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्तिः । (तवा ६.२४.१०) भगवती व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र का एक विशेषण, जो वर्तमान में उसके पर्यायवाची नाम के रूप में प्रसिद्ध है। वियाहपण्णत्तीए णं भगवतीए चउरासीइं पयसहस्सा पदग्गेणं पण्णत्ता। (सम८४.११) (द्र व्याख्या) भजना नियम का प्रतिपक्ष 'हो भी सकता है और नहीं भी' इस प्रकार का विकल्पयुक्त वचन। भयणाए त्ति 'भजनया' विकल्पनया। (भग १.२३४ वृ) (द्र नियम) भक्तप्रत्याख्यान यावत्कथिक अनशन का पहला प्रकार, जिसमें भक्त-भोजन का प्रत्याख्यान होता है, चंक्रमण आदि क्रिया की वर्जना नहीं होती। भत्तपच्चक्खाणं णाम केवलमेव भत्तं पच्चक्खातं, ण तु चंक्रमणादिक्रिया। (उचू पृ१२९) (द्र इंगिनीमरण भक्तप्रत्याख्यानमरण) भणक वह मुनि, जो कालिक, उत्कालिक आदि आगमों का अनवरत प्रतिपादन करता है। 'भणकं कालिकादिसूत्रार्थमनवरतं भणति-प्रतिपादयतीति भणः, भण एव भणकः। (नंदी २८ मवृ प ५०) भक्तप्रत्याख्यान मरण वह मरण, जिसका समाधि की स्थिति में ॐ किया जाता है। भक्तप्रत्याख्यानं तु गच्छमध्यवर्तिनः, स कदाचित् त्रिविधाहारप्रत्याख्यायीति, कदाचिच्चतुर्विधाहारप्रत्याख्यायी, पर्यन्ते कृतसमस्तप्रत्याख्यानः समाश्रितमृदुसंस्तारकः समुत्सृष्टशरीराद्युपकरणममत्वः स्वयमेवोद्ग्राहितनमस्कारः समीपवर्तिसाधुदत्तनमस्कारो वा उद्वर्तनपरिवर्तनादि कुर्वाणः समाधिना करोति कालमेतद् भक्तप्रत्याख्यानं मरणमिति। (तभा ९.१९ व) भद्रा प्रतिमा प्रतिमा का एक प्रकार। पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर की ओर मुख कर प्रत्येक दिशा में चार-चार प्रहर तक कायोत्सर्ग करना। श्रमण महावीर ने भद्रा आदि प्रतिमाओं की साधना की थी। भद्रा-पूर्वादिदिक्चतुष्टये प्रत्येकं प्रहरचतुष्टयकायोत्सर्गकरणरूपा अहोरात्रद्वयमानेति। (स्था २.२४५ वृ प ६१) भदं च महाभदं पडिमं तत्तो य सव्वओभई।। दो चत्तारि दसेव य दिवसे ठासी य अणुबद्धं ॥ भई पडिमं ठाति. पुव्वाहुत्तो दिवसं अच्छति पच्छा रत्तिं दाहिणहुत्तो, अवरेण दिवसं उत्तरेण रत्तिं, एवं छटेण भत्तेण णिद्विता। "महाभदं ठाति, सा पुणपुव्वाए दिसाए अहोरत्तं, एवं चउसु वि चत्तारि अहोरत्ता, एवं दसमेण णिट्ठित... सव्वतोभदं पडिमं ठाति।सा पुण सव्वतोभद्दा इंदाए अहोरत्तं, पच्छा अग्गेयाए, एवं दससु वि दिसासु सव्वासु, विमलाए भक्ति वह भावशुद्धियुक्त अनुराग, जो अर्हत, आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचन में होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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