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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश १५७ २. अर्हत् पार्श्व की परम्परा के साधुओं के द्वारा भगवान् यस्मात्तत् निरवशेषम्। (स्था १०.१०१ वृ प ४७३) महावीर के संघ में प्रवेश पाने के लिए स्वीकृत किया जाने निरुद्धपर्याय वाला चारित्र। निरतिचारच्छेदोपस्थापनीययोगान्निरतिचारः स च शैक्षकस्य। वह श्रमण, जिसने अपने उत्कृष्टतः बीसवर्षीय संयमपर्याय से उत्प्रव्रजन कर पुनः संयमपर्याय को स्वीकार किया हो। पार्श्वनाथतीर्थान्महावीरतीर्थसंक्रान्तौ वा। निरुद्धो विनाशितः पर्यायो यस्य स निरुद्धपर्यायः""तस्य (भग २५.४५५ वृ) पूर्वपर्यायो विकृष्टो विंशतिवर्षाण्यासीत्। (व्य ३.९ वृ) (द्र छेदोपस्थाप्य चारित्र) निरुपक्रम आयु निरन्तरबन्धिनी (तभा २.५२) वह कर्म-प्रकृति, जिसका बंध जघन्यत (द्र अनपवर्तनीय आयु) निरन्तर होता है, जैसे–मतिज्ञानावरण, चक्षुर्दर्शनावरण आदि। जघन्येनापिया अंतर्महतं यावन्नरन्तर्येण बध्यन्ते ता: निरन्तर- निर्ग्रन्थ बन्धाः । (कप्र पृ ४४) १. वह मुनि, जो अकेला है, एकत्व भावना का अभ्यासी है, आत्मप्रवाद (सातवें पूर्व) का ज्ञाता है, इन्द्रियों का बाह्य निरपलाप और आन्तरिक दोनों रूपों में संयम करता है। योगसंग्रह का एक प्रकार। शिष्य के द्वारा आलोचित अपराध एत्थ वि णिग्गंथे–एगे एगविदू बुद्धे संछिण्णसोए सुसंजए का अप्रकटीकरण। सुसमिए सुसामाइए आतप्पवादपत्ते विऊदुहओ वि सोयपलि'निरवलावे' त्ति आचार्योऽपि मोक्षसाधकयोगसङ्ग्रहायैव छिपणे णो पूयासक्कारलाभद्री धम्मदी धम्मविऊ णियागदत्तायामालोचनायां निरपलापः स्यात्, नान्यस्मै कथयेत्। पडिवणे समियं चरे दंते दविए वोसकाए 'णिग्गंथे' त्ति (सम ३२.१.१ ७ प ५५) वच्चे। (सूत्र १.१६.६) निरयावलिका २. जो बाह्य (धन, धान्य आदि) और आभ्यन्तर (मिथ्यात्व, कालिक श्रुत का एक प्रकार । उपाङ्ग का प्रथम वर्ग, जिसमें कषाय आदि) ग्रंथियों-आसक्तियों से मुक्त होता है। चेटक और कोणिक के भीषण युद्ध का वर्णन है। सावज्जेण विमुक्का, सब्भितर-बाहिरेण गंथेण। निग्गहपरमा य विद, तेणेव य होंति निग्गंथा। (नन्दी ७८) जे वि अ न सव्वगंथेहिं निग्गया होंति केइ निग्गंथा। "उवंगाणं पढमस्स वग्गस्स निरयावलियाणं दस अज्झयणा ते वि य निग्गहपरमा, हवंति तेसिं खउज्जुत्ता॥ पण्णत्ता। कलुसफलेण न जुज्जइ, किं चित्तं तत्थ जं विगयरागो। "कृणिए राया"चेडगे राया"रहमसलं संगामं ओयाए। संते वि जो कसाए, निगिण्हई सो वि तत्तुल्लो॥ "दोण्हवि राठणं "अण्णमण्णेणं सद्धिं जुझंति। .."गिण्हंता उवगरणं, जम्हा अममत्तया तेसु॥ (निर ७, १३६-१३९) (बृभा ८३२, ८३६-८३८) निरवद्य दान ३. सराग अथवा वीतराग, प्रतिसेवी अथवा अप्रतिसेवी साधु, जिस दान से अपना व पर का संयम पुष्ट होता है, धर्मदान। जो चारित्र के लिए अधिकृत हैं, जैसे-पुलाक, बकुश, येन स्वस्य परस्य वा संयम उपचयं याति तन्निरवद्यदानं कुशील, निग्रंथ और स्नातक। धर्मदानमिति। (जैसिदी ९.१७ ) पंच नियंठा पण्णत्ता, तं जहा-पुलाए, बउसे, कुसीले, निरवशेष प्रत्याख्यान नियंठे, सिणाए॥ (भग २५.२७८) प्रत्याख्यान का एक प्रकार, जिसमें अशन, पान, खाद्य और ४. निर्ग्रन्थ का चौथा प्रकार। मोहकर्म के उपशम अथवा क्षय स्वाद्य का सम्पूर्ण परित्याग किया जाता है। से होने वाली वीतराग अवस्था। 'निरवसेसं' ति निर्गतमवशेषमपि अल्पाल्पमशनाद्याहारजातं निर्गतो ग्रन्थान्-मोहनीयकर्माख्यादिति निर्ग्रन्थः । (भग २५.२७८ वृ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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