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________________ १५६ जैन पारिभाषिक शब्दकोश निद्रा निमित्त दर्शनावरणीय कर्म की एक प्रकृति। स्वर, लक्षण आदि के आधार पर अतीत, वर्तमान और १. जिसके उदय से ऐसी नींद आती है जो सुखपूर्वक टूटती भविष्य संबंधी शुभ-अशुभ, लाभ-अलाभ का प्रतिपादक है। शास्त्र, जैसे-अंगनिमित्त, स्वरनिमित्त आदि। निद्रा-सुखप्रबोधा स्वापावस्था। (स्था ९.१४ वृ प ४२४) । अंगं सरो लक्खणं च वंजणं सुविणो तहा। २ मद, खेद और क्लान्ति को दूर करने के लिए होने वाला छिण्ण भोम्मंऽतलिक्खाए एमए अट्ठ आहिया॥ शयन, जिसमें चैतन्य अविस्पष्ट हो जाता है। एए महानिमित्ता उ अट्ठ संपरिकित्तिया। मदखेदक्लमविनोदार्थः स्वापो निद्रा। (तवा ८.७) एएहिं भावा णजंति तीताऽणागय-संपया। नियतं द्राति अविस्पष्टतया गच्छति चैतन्यं यस्यां स्वापाव इंदिएहिंदियत्थेहिं, समाधाणं च अप्पणो। णाणं पवत्तए जम्हा, णिमित्तं तेण आहियं॥ स्थायां सा निद्रा। (कप्र पृ९) (अंवि १.२,३,१३) निद्रानिद्रा (द्र महानिमित्तज्ञता) दर्शनावरणीय कर्म की एक प्रकृति । निमित्तपिण्ड १. जिसके उदय से नींद दुःख से टूटती है। उत्पादन दोष का एक प्रकार। अतीत, वर्तमान और भविष्य २. वह शयन-अवस्था, जिसमें चैतन्य अत्यधिक अविस्पष्ट में होने वाले लाभ-अलाभ बताकर भिक्षा लेना। हो जाता है, अतिशायिनी निद्रा। निद्रातिशायिनी निद्रा निद्रानिद्राह्यत्यर्थमस्फुटतरीभूतचैत अतीताऽनागतवर्तमानकालेषु लाभाऽलाभादिकथनं निमि त्तम्। तद् भिक्षार्थं कुर्वतो निमित्तपिण्डः। न्यत्वाहुःखेन बहुभिर्घोलनादिभिः प्रबोधो भवत्यतः सुप्रबोधानिद्रापेक्षया अस्या अतिशायिनीत्वं तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृति (योशा १.३८ वृ पृ १३५) रपि कार्यद्वारेण निद्रानिद्रेत्युच्यते। (स्था ९.१४ वृ प ४२४) नियन्त्रित उपर्युपरि तवृत्तिर्निद्रानिद्रा। (तवा ८.७) प्रत्याख्यान का एक प्रकार । नीरोग या ग्लान अवस्था में भी 'मैं अमुक प्रकार का तप अमुक-अमुक दिन अवश्य करूंगा'निधत्ति इस प्रकार का प्रत्याख्यान करना। कर्मकरण का एक प्रकार। वीर्य विशेष के द्वारा कर्म को 'नियंटियं' ति नितरां यन्त्रितं-प्रतिज्ञातदिनादौ ग्लानत्वाउद्वर्तना और अपवर्तना के अतिरिक्त उदीरणा, संक्रमण आदि द्यन्तरायभावेऽपि नियमात्कर्त्तव्यमिति। करणों के अयोग्य बना देना। (स्था १०.१०१ वृप ४७२) निधीयते-उद्वर्तनापवर्तनान्यशेषकरणायोग्यत्वेन व्यवस्था- नियम प्यते कर्म यया सा निधत्तिः। (कप्र पृ ४८) १. तप, स्वाध्याय, सेवा आदि के लिए किया जाने वाला दृढ़ निधिरत्न संकल्प। तपः-अनशनादिनियमा:-तद्विषया अभिग्रहविशेषा: यथा (जं ३.१६७) एतावत्तपःस्वाध्यायवैयावृत्त्यादि। (भग १८.२०७०) (द्र महानिधि) २. नियमतः होना, व्याप्ति, अनिवार्यता। (भग १.२३४) (द्र भजना) अपने दोषों के प्रति अनादर का भाव प्रकट करना। निरतिचारछेदोपस्थापनीय चारित्र निन्दनम्-आत्मनैवात्मदोषपरिभावनम्। १. वह छेदोपस्थापनीय चारित्र, जो अतिचार-सेवन के (उ २९.७ शावृ प ५७९) कारण के बिना सामान्य विधि के अनुसार सामायिक चारित्र की अवधि की समाप्ति के बाद स्वीकार किया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org निन्दा
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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