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________________ १४६ जैन पारिभाषिक शब्दकोश द्विचक्षुः द्रव्यानुपूर्वी सूत्रकृत आदि। आनुपूर्वी का एक प्रकार । आनुपूर्वी का द्रव्यनिक्षेपात्मक रूप, "द्वादशाङ्गं' श्रुतपरमपुरुषोत्तमस्याङ्गानीवाङ्गानिद्वादशअङ्गानिजिसका प्रयोजन है-द्रव्य की संरचना का क्रम और द्रव्य आचारादीनि यस्मिंस्तद् द्वादशाङ्गम्। का क्रम बतलाना। (अनु १०५) (नन्दी ६५ हावृ पृ६४) वालसंगं गणिपिडकं, तं जहा-आयारो, सूयगडो, ठाणं, द्रव्यानुयोग समवाओ, वियाहपण्णत्ती, नायाधम्मकहाओ, उवासगजिससे जीव आदि द्रव्यों के द्रव्यत्व की व्याख्या की जाती दसाओ, अंतगडदसाओ, अणुत्तरोववाइयदसाओ, पण्हावा गरणाइं, विवागसुयं, दिट्ठिवाओ। (नन्दी ६५) यज्जीवादेव्यत्वं विचार्यते स द्रव्यानुयोगः। द्वादशाङ्गी (स्था १०.४६ वृ प ४५६) वह मुनि, जो द्वादशाङ्ग (बारह अङ्गों) का धारक होता है। द्रव्यार्थिक नय (औप २६) मूल नय का पहला प्रकार। ज्ञाता का वह अभिप्राय, जो (द्र समस्तगणिपिटकधर) पर्याय को गौण कर द्रव्य को ग्रहण करता है, जिसके द्वारा द्रव्य के ध्रौव्यांश पर विचार किया जाता है। द्विचक्षुष्मान्। वह जीव, जिसके सामान्य चक्षु और अतीन्द्रिय पज्जय गउणं किच्चा दव्वं पि य जो हु गिण्हइ लोए। ज्ञान-अवधिज्ञानरूपी चक्ष-ये दो चक्ष होते हैं. जैसेसो दव्वत्थिय भणिओ विवरीओ पज्जयत्थिणओ। देव। (नच १८९) देवे बिचक्खू। दव्वट्ठियस्स सव्वं सया अणुप्पन्नमविणहूँ। उप्पजंति नियंति य भावा नियमेण पज्जवणयस्स। देवो द्विचक्षुः चक्षुरिन्द्रियावधिभ्याम्। (सप्र १.११) (स्था ३.४९९ वृप १६१) (द्र पर्यवनय, पर्यायार्थिक नय) द्वितीयपद द्रव्यास्तिक नय अपवादमार्ग, मुनि के लिए किया जाने वाला विशेष व्यवस्था (सप्र १.३) का विधान, जो सामान्य व्यवस्था के अपवादरूप में होता है। (द्र द्रव्यार्थिक नय) बिइयपद तेण सावय, भिक्खे वा कारणे व आगाढे। कज्जुवहि मगर छुब्भण, नावोदग तं पि जतणाए। द्रव्येन्द्रिय (बृभा ५६६३) इन्द्रिय की रचना और इन्द्रियज्ञान की उपकारक शक्ति। द्वितीयसमवसरण 'दविदियाई ति निर्वृत्त्युपकरणलक्षणानि। चतुर्मास अथवा वर्षाकाल के अति-रिक्त शेष आठ महीने (भग १.३४१ वृ) का कालमान । ऋतुबद्धकाल, शेषकाल। (बृभा ४२३५ वृ) द्वादशभक्त (द्र प्रथमसमवसरण) पांच दिन का उपवास। द्विधाखा श्रेणि द्वादशमुपवासपञ्चकलक्षणं तप इति। (प्रसावृ प १६९) आकाशश्रेणि का एक प्रकार । वह श्रेणि, जिसमें स्थावर जीव दवालसमेण""दिनपञ्चकानन्तरं भुक्तवान्। त्रसनाड़ी के किसी एक पार्श्व (दाएं या बांए) से उसमें (आभा ९.४.७) प्रवेश कर उसके बाह्यवर्ती दूसरे पार्श्व में दो या तीन घुमाव द्वादशाङ्ग लेकर नियत स्थान में उत्पन्न होता है। तब उसके त्रसनाड़ी वह श्रुतपुरुष, जिसके बारह अङ्ग होते हैं, जैसे--आचार, ___ के बाहर का दोनों ओर का आकाश स्पृष्ट होता है। इसलिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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