SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश १४७ ल, जिसका 'द्विधाखा' श्रेणि कहलाती है। पुद्गल की गति भी इसी प्रकार की होती है। (देखें चित्र पृ ३४१) 'दुहओखह' त्ति नाड्या वामपार्खादेर्नाडी प्रविश्य तयैव गत्वाऽस्या एव दक्षिणपादिौ ययोत्पद्यते सा द्विधाखा, नाडीबहिर्भूतयोमिदक्षिणपार्श्वलक्षणयोर्द्वयोराकाशयोस्तया स्पृष्टत्वादिति, स्थापना चेयम्। (भग २५.९१ वृ प ८६८) द्विधावक्रा श्रेणि आकाशश्रेणि का एक प्रकार । जीव अथवा पुद्गल की दो घुमाव वाली गति का पथ, जिसमें एक गति से दूसरी गति में जीव दो मोड लेकर तीन समय में उत्पन्न होता है। जब मरणस्थान की अपेक्षा से उत्पत्तिस्थान नीचे वाले या ऊपर वाले प्रतर में विश्रेणि में होता है, तब इस श्रेणि से गति होती है। जब जीव ऊंचे लोक के अग्निकोण (पूर्व-दक्षिण) में मरकर नीचे लोक के वायव्य कोण (उत्तर-पश्चिम) में उत्पन्न होता है तब वह पहले समय में अग्नि कोण से तिरछी-गति कर नैऋत कोण की ओर जाता है। दूसरे समय में वहां से तिरछा होकर वायव्य कोण की ओर जाता है। तीसरे समय में नीचे वायव्य कोण में जाता है। यह तीन समय की गति त्रसनाड़ी अथवा उसके बाहरी भाग में होती है। पुद्गल की गति भी इसी प्रकार होती है। (देखें चित्र पृ ३४१) 'दुहओवंक' त्ति यस्यां वारद्वयं वक्रं कुर्वन्ति सा द्विधावक्रा, इयं चोर्ध्वक्षेत्रादाग्नेयदिशोऽधः क्षेत्रे वायव्यदिशि गत्वा य उत्पद्यते तस्य भवति, तथाहि-प्रथमसमये आग्नेय्यास्तिर्यग् नैर्ऋत्यां याति ततस्तिर्यगेव वायव्यां ततोऽधो वायव्यामेवेति, त्रिसमयेयं त्रसनाड्या मध्ये बहिर्वा भवतीति। (भग २५.९१ वृ प ८६८) दुहओवंकाए सेढीए उववज्जमाणे तिसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेज्जा। (भग ३४.३) यदा तु मरणस्थानादुत्पत्तिस्थानमधस्तने उपरितने वा प्रतरे विश्रेण्यां स्यात्तदा द्विवक्राश्रेणिः स्यात् समयत्रयेण चोत्पत्तिस्थानावाप्तिः स्यादित्यत उच्यते। (भग ३४.३ ७ प ९५७) द्विपदचतुष्पदप्रमाणातिक्रम इच्छापरिमाण व्रत का एक अतिचार। अनजान में अथवा अतिलोभ के कारण मनुष्य, पशु, पक्षी आदि के प्रमाण का अतिक्रमण करना। (उपा १.३६) (द्र धनधान्यप्रमाणातिक्रम) द्वीन्द्रिय वह प्राणी, जिसके स्पर्शन और रसन-ये दो इन्द्रियां होती हैं, जैसे-शंख, शुक्ति, कृमि आदि। स्पर्शनरसनेन्द्रियद्वययुक्ताः शंखशुक्तिकृम्यादयो द्वीन्द्रियाः। (बृद्रसं ११ वृ पृ २३) द्वीपकुमार भवनपति देवनिकाय का एक प्रकार । वह देववर्ग, जिसका वक्षस्थल, स्कन्ध, बाहुओं का अग्रभाग और हाथ अधिक सुन्दर होता है, जिसका चिह्न है-सिंह। उर:स्कन्धबाह्वग्रहस्तेष्वधिकप्रतिरूपा: श्यामावदाताः सिंहचिह्ना द्वीपकुमाराः। (तभा ४.११ वृ) द्वीपसागरप्रज्ञप्ति कालिक श्रुत का एक प्रकार, जो बाईस प्रकीर्णकों में से एक है। वह अध्ययन, जिसमें द्वीपों और सागरों तथा उनमें रहने वाले ज्योतिष्क, वानमंतर और भवनवासी देवों के आवास का वर्णन है। (नन्दी ७८) जा दीवसागरपण्णत्ती सा दीवसायराणं तत्थट्रियजोयिसवण-भवणावासाणं"वण्णणं कुणइ। (कप्रा १ पृ १३३) प्रतिरू जीव का वह परिणाम, जो अप्रीति और दुःख उत्पन्न करता है, जैसे-क्रोध, मान आदि। 'दोसे'त्ति द्वेषणं द्वेषः दूषणं वा दोषः स चानभिव्यक्तक्रोधमानलक्षणभेदस्वभावोऽप्रीतिमात्रमिति। (स्था १.१०१ वृ प २४) दुःखाभिप्रायो द्वेषः। (जैसिदी ९.१२) (द्र दोष) द्वेष पाप पापकर्म का ग्यारहवां प्रकार। द्वेषात्मक प्रवृत्ति से होने वाला अशुभ कर्म का बंध। (आवृ प ७२) द्वेष पापस्थान पापस्थान का ग्यारहवां प्रकार। वह कर्म, जिसके उदय से जीव द्वेष में प्रवृत्त होता है। (झीच २२.२२) (द्र मान पापस्थान) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy