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________________ ११२ जैन पारिभाषिक शब्दकोश तीर्थंकरों का स्तवन है। (नन्दी ७५) चतुर्विंशतिस्तवः तीर्थकराणामनुकीर्तनम्। (तवा ६.२४) चरम व्यक्ति की जिस अवस्था का अत्यन्त वियोग हो जाता है, वह उस अवस्था की दृष्टि से चरम है। अच्चंतविओगो जस्स, जेण भावेण सो चरिमो॥ (भग १८.३६) चन्द्र ज्योतिष्क देवनिकाय का एक प्रकार। अष्टाविंशतिनक्षत्राणि, अष्टाशीतिर्ग्रहाः, षट्षष्टिःसहस्त्राणि नव शतानि पञ्चसप्ततीनि ताराकोटाकोटीनामेकैकस्य चन्द्रमसः परिग्रहः। (तभा ४.१४) (द्र ज्योतिष्क देव) चन्द्रप्रज्ञप्ति कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें चन्द्रमा का ज्योतिषीय विवेचन है। (नन्दी ७८) चन्द्रवेध्यक उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार । इस अध्ययन में विनयगुण, आचार्यगुण, शिष्यगुण, ज्ञानगुण, चारित्रगुण आदि विषयों पर विस्तार से विवेचन है। (नन्दी ७७) चरमनारक नरकगति में अन्तिम बार उत्पन्न होने वाला जीव। चरमनारकभवयक्तत्वाच्चरमाः न पनारका भविष्यन्ति। (स्था १०.१२३ वृ प ४८७) चरमसमयनिर्ग्रन्थ निर्ग्रन्थ (निर्ग्रन्थ) का एक प्रकार। उपशान्तमोह अथवा क्षीणमोह गुणस्थान के अन्तिम समय में वर्तमान निर्ग्रन्थ (निर्गन्थ)। (द्र यथासूक्ष्मनिर्ग्रन्थ) चरित्र (उ २८.२९) (द्र चारित्र) चरण जिसका अनुष्ठान मुनि के द्वारा नित्य किया जाता है, जैसेअहिंसा आदि। नित्यानुष्ठानं चरणम्।"व्रतादि सर्वकालमेव चर्यते न । पुनर्वतशून्यः कश्चित्कालः। (ओभा ३ वृ प ७) । चरणविधि उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार। इस अध्ययन में चारित्र की विधियों का निरूपण है। चरणं-चारित्तं, तस्स विही चरणविही, सभेदो चरणविही वणिज्जति जत्थ अज्झयणे तमज्झयणं चरणविही। (नन्दी ७७ चू पृ५८) चर्मरत्न चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में से एक रत्न, जो पानी में नौका का काम देता है। इसकी शक्ति से बारह योजन लंबे-चौड़े क्षेत्र में प्रात:काल में बोये गये बीज अपराह्न में पक जाते हैं। तए णं से दिव्वे चम्मरयणे सुसेणसेणावडणा परामटे समाणे खिप्पामेव णावाभूए जाए यावि होत्था। (जं ३.८०) चर्मरत्नं-द्वादशयोजनायामविस्तारं प्रातरुप्तापराह्नसम्पन्नोपभोग्यशाल्यादिसम्पत्तिकरम्। (प्रसा १२१४ वृ प ३५०) चर्या परीषह परीषह का एक प्रकार। भिन्न-भिन्न स्थानों में विहार करने और किसी भी एक स्थान में नियत वास नहीं करने से उत्पन्न वेदना, जो मुनि के द्वारा समभावपूर्वक सहनीय है। एग एव चरे लाढे अभिभूय परीसहे। गामे वा नगरे वावि निगमे वा रायहाणिए। असमाणो चरे भिक्खू नेव कुज्जा परिग्गहं। असंसत्तो गिहत्थेहिं अणिएओ परिव्वए। (उ २.१८,१९) चरणसप्तति नित्य आचार की सत्तर विधाओं का संकलन, जैसे- पांच महाव्रत, दशविध श्रमणधर्म आदि। वयसमणधम्मसंजमवेयावच्चं च बंभगुत्तीओ। नाणाइतियं तव कोहनिग्गहाई चरणमेयं ।। (ओभा २) (द्र चरण) गुत्ताआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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