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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश ११३ चलित चारित्र वह कर्मपुद्गल, जो स्थिर अवस्था को छोड़कर प्रकम्पित हो संयम। जाता है। १. कर्म का निग्रह । कर्म आने के कारणों की निवृत्ति । 'चलियं' ति जीवप्रदेशेभ्यश्चलितम्। (भग १.२८ ) कर्मादानकारणनिवृत्तिश्चारित्रम्। (तवा १.७) ...."चरित्तेण निगिण्हाइ"। (उ २८.३५) चातुर्याम धर्म २. निरवद्य योग, इसके द्वारा निर्जरा होती है, कर्मसंचय रिक्त प्राणातिपातविरमण, मृषावादविरमण, अदत्तादानविरमण और होता है। बाह्यादानविरमण नामक चार याम-महाव्रत वाला धर्म, जो ... एयं चयरित्तकरं, चारित्तं होइ आहियं॥ (उ २८.३३) मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के शासनकाल में होता है। चातुर्यामः-महाव्रतचतुष्टयात्मको यो धर्मः। चारित्र आत्मा (उ २३.१२ शावृ प ४९९) सावध योग की निवृत्ति और निरवद्य योग की प्रवृत्ति से होने वाला आत्मा का एक पर्याय। चापेटी चारित्रात्मा विरतानां....। (भग १२.२०० वृ) वह विद्या, जिसमें चिकित्सक दूसरे व्यक्ति के चपेटा लगाता है और रोगी स्वस्थ हो जाता है। चारित्रकषायकुशील यया अन्यस्य चपेटायां दीयमानायामातुरः स्वस्थो भवति सा । कषायकुशील निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। वह मुनि, जो चारित्र चापेटी। (व्यभा २४४१ वृप २७) के प्रसंग में क्रोध, अहंकार आदि का प्रयोग कर अथवा कषायवश अभिशाप आदि का प्रयोग कर चारित्र की विराधना चामर करता है। महाप्रतिहार्य का एक प्रकार। चौंतीस अतिशयों में से एक (द्र ज्ञानकषायकुशील) अर्हत् के चारों ओर कुंद पुष्प के समान श्वेत चंवर डुलाए जाते हैं। चारित्रप्रतिषेवणाकुशील देवैः"काञ्चनमयोद्दण्डदण्डरमणीया चारुचामरश्रीविस्ता- प्रतिसेवनाकुशील निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। वह मुनि, जो यते। (प्रसा ४४० वृ प १०६) आजीविका के लिए कौतुक, भूतिकर्म, प्रश्नाप्रश्न, निमित्त, आगासियाओ सेयवरचामराओ। (सम ३४.१.८) कल्क-कुरुका, लक्षण, विद्या तथा मन्त्र का प्रयोग करता है। (द्र छत्र) (द्र ज्ञानप्रतिषेवणाकुशील) चारक चारित्रधर्म प्राचीन दण्डनीति का एक प्रकार । अपराधी को कारावास की सावध योग की निवृत्ति और निरवद्य योग की प्रवृत्ति रूप सजा देना। धर्म। चारकं गुप्तिगृहम्। (स्था ७.६६ वृ प ३७८) असहादो विणिवित्ती, सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं । वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणया दु जिणभणियं॥ चारण (बृद्रसं ४५) विशेष प्रकार के गमन, आगमन और आकाशगमन की लब्धि से सम्पन्न मुनि। चारित्रपुलाक चरणं-गमनमतिशयवदाकाशे एषामस्तीति चारणाः। पुलाक निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। मूलगुण तथा उत्तरगुण (भग २०७९ ७) दोनों में दोष लगाकर चारित्र को सारहीन बनाने वाला। चारण (ऋद्धि) मूलोत्तरगुणप्रतिसेवनातश्चरणपुलाकः । ऋद्धि का एक प्रकार। (स्था ५.१८५ वृ प ३२०) (द्र चारण) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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