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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश अंगपच्चंगसंठाणं, चारुल्लवियपेहियं। बंभचेररओ थीणं, चक्खुगिज्झं विवज्जए॥ (उ १६ गा ४) (द्र इन्द्रियालोकवर्जन) चक्षुर्दर्शन चक्षु से होने वाला सामान्य बोध। चक्षरिन्द्रियेण दर्शनं-रूपसामान्यग्रहणलक्षणं चक्षदर्शनम्। (प्रज्ञा २९.३ वृ प ५२७) चक्षुर्दर्शनावरण दर्शनावरणीय कर्म की एक प्रकृति । चक्षु के द्वारा होने वाले दर्शन-सामान्यग्राही बोध का आवरण। चक्षुषा दर्शनं-सामान्यग्राही बोधश्चक्षदर्शनं तस्यावरणं चक्षुर्दर्शनावरणम्। (स्था ९.१४ वृ प ४२४) चण्डा परिषद् इन्द्र की परिषद् का एक प्रकार। मध्यमा परिषद्, इसके सदस्य इन्द्र के द्वारा बुलाने और न बुलाने पर भी आते हैं। मज्झिमिता चंडा। (स्था ३.१४३) ये त्वाहूता अनाहूताश्चागच्छन्ति सा मध्यमा। (स्था ३.१४३ वृ प १२२) (द्र जाता परिषद्, समिता परिषद्) चतुःस्थानपतित (चतुःस्थानिका) तुलनात्मक न्यूनता और अधिकता को बताने वाले चार गणितीय मान। जैसे-असंख्येयभागहीन, संख्येयभागहीन, संख्येय- गुणहीन, असंख्येयगुणहीन अथवा; असंख्येयभागअधिक, संख्येयभागअधिक, संख्येयगुणअधिक, असंख्येयगुणअधिक। (प्रज्ञा ५.१५६) (द्र षट्स्थानपतित) चतुःस्पर्शी सूक्ष्म परिणति वाला पुद्गलस्कन्ध, जिसमें स्निग्ध और रूक्ष, शीत और उष्ण-ये चार स्पर्श होते हैं, जैस-कर्मशरीर, मनयोग, वचनयोग। ""ओरालियसरीरे, जाव तेयगसरीरे-एयाणि अट्ठफासाणि। कम्मगसरीरे चउफासे। मणजोगे वइजोगे य चउफासे। कायजोगे अगुफासे। सर्वत्र च चतुःस्पर्शत्वे सूक्ष्मपरिणाम: कारणं, अष्टस्पर्शत्वे च बादरपरिणामः कारणं वाच्यमिति। (भग १२.११७ वृ) (द्र अष्टस्पर्शी) चतुरिन्द्रिय स्पर्शन, रसन, घ्राण और चक्षु-इन चार इन्द्रियों वाला प्राणी, जैसे-मच्छर, मक्खी , भ्रमर आदि। स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुरिन्द्रियचतुष्टययुक्ता दंशमशकमक्षिकाभ्रमरादयश्चतुरिन्द्रियाः। (बुद्रसं ११ वृ पृ २३) चतुर्थभक्त उपवास, सूर्यास्त से पहले तीसरे दिन के सूर्योदय तक आहार का प्रत्याख्यान। चतुर्थं भक्तं यावद्भक्तं त्यज्यते यत्र तच्चतुर्थम्, इयं चोपवासस्य संज्ञा। (भग २.६२ वृ) 'चउत्थभत्तियस्स...."एक पर्वदिने द्वे उपवासदिने चतर्थं पारणकदिने भक्तं-भोजनं परिहरति यत्र तपसि तत्-चतुर्थ भक्तं, तद्यस्यास्ति स चतुर्थभक्तिव्यः। (स्था ३.३७ वृप'१३७) (द्र अभक्तार्थ) चतुर्दशपूर्वी चौदह पूर्वो-विशिष्ट ज्ञानराशि का ज्ञाता मुनि। इसके दो प्रकार हैं-१. भिन्नाक्षर चतुर्दशपूर्वी (श्रुतकेवली) और २. अभिन्नाक्षर चतुर्दशपूर्वी । .चोद्दस पुव्वाइं अहिज्जइ। (अन्त ३.११६) "चतुर्दशपूर्वधरः, सच द्विविधः-भिन्नाक्षरोऽभिन्नाक्षरश्च, ते च यस्यैकैकमक्षरं श्रुतज्ञानगम्यपर्यायैः सत् कारिकाभेदेन भिन्नं वितिमिरतामितं स भिन्नाक्षरः, तस्य च श्रुतज्ञानसंशयापगमात् प्रश्नाभावस्ततश्चाहारकलब्धितामपि नैवोपजीवति विनालम्बनेन, स एव श्रुतकेवली भण्यते, शेष: करोत्यकृत्स्नश्रुतज्ञानलाभादवीतरागत्वाच्च। (तभा २.४९ वृ पृ २०९) सयलसुदणाणधारिणो चोद्दसपुव्विणो। (धव पु ९ पृ ७०) (द्र अभिन्नाक्षर चतुर्दशपूर्वी, भिन्नाक्षर चतुर्दशपूर्वी) चतुर्विंशतिस्तव षडावश्यक में दूसरा आवश्यक (लोगस्स), जिसमें चौबीस आचा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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