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________________ होने के कारण इन दोनों के (संस्कृत और पालि के ) लक्षणों से आक्रान्त है।' यह सिद्धान्त सर्वथा भ्रान्त है, क्योंकि हम यह पहले ही अच्छी तरह प्रमाणित कर चुके हैं कि संस्कृत-भाषा क्रमशः परिवतित होकर पालि भाषा में परिणत नहीं हुई है, किन्तु पालि-भाषा चैदिक-युग की एक प्रादेशिक भाषा से ही उत्पन्न हुई है। और, गाथा-भाषा पालि-भाषा के पहले प्रचलित न थी, क्योंकि गाथा-भाषा के समस्त ग्रन्थों का रचना-काल खिस्त-पुर्व दो सौ वर्षों से लेकर ख्रिस्त की तृतीय शताब्दी पर्यन्त का है, इससे गाथा-भाषा बहुत तो पालि भाषा की समकालान हो सकती है, न कि पालि-भाषा की पूर्वावस्था। यह भाषा संस्कृत के प्रभाव को कायम रखकर विभिन्न प्राकृत-भाषाओं के मिश्रण से बनी है, इसमें सन्देह नहीं है। यही कारण है कि इसके शब्दों को प्रस्तुत कोष में स्थान नहीं दिया गया है। गाथा-भाषा का थोड़ा नमूना ललितविस्तर से यहाँ उद्धृत किया जाता है: "अघ्र वं त्रिभवं शरदभ्रनिर्भ, नटरङ्गसमा जगि जन्मि च्युति । गिरिनद्यसमं लघुशीघ्रजवं, व्रजतायु जगे यथ विद्यु नभे ॥ १ ॥ "टदकचन्द्रसमा इमि कामगुणा. प्रतिबिम्ब इवा गिरिघोष यथा । प्रतिभाससमा नटरङ्गसमास्तथ स्वप्नसमा विदितार्यजनैः ॥ १ ॥" (पृष्ठ २०४, २०६ )। बुद्धदेव और उसके सारथी की आपस में बातचीत : "एषो हि देव पुरुषो जरयाभिभूतः, क्षीणेन्द्रियः सुदुःखितो बलवीर्यहीनः । बन्धुजनेन परिभूत अनाथभूतः, कार्यासमर्थ अपविद्ध बनेव दारु॥ कुलधर्म एष अयमस्य हि त्वं भणाहि, प्रथवापि सर्वजगतोऽस्य इयं ह्यवस्था । शीघ्र भरणाहि वचनं यथभूतमेतत्, श्रुत्वा तथार्थमिह योनि संचिन्तयिष्ये ।। नैतस्य देव कुलधर्म न राष्ट्रधर्मः, सर्वे जगस्य जर यौवन धर्षयाति । तुभ्यंपि मातृपितृबान्धवज्ञातिसंघो, जरया अमुक्तं नहि अन्यगतिर्जनस्य ।। धिक् सारथे अबुधबालजनस्य बुद्धियद् यौवनेन मदमत्त जरा न पश्ये । पावर्तयस्विह रथं पुनरहं प्रवेक्ष्ये, कि मह्य क्रीडरतिभिर्जरया श्रितस्य ।।" संस्कृत पर प्राकृत का प्रभाव पहले जो यह कहा जा चुका है कि वैदिक काल के मध्यदेश-प्रचलित प्राकृत से ही वैदिक संस्कृत उत्पन्न हुआ है और वह साहित्य और व्याकरण के द्वारा क्रमशः माजित और नियन्त्रित होकर अन्त में लौकिक संस्कृत में परिणत हुआ है; एवं प्राकृत के अन्तर्गत समस्त तत्सम शब्द संस्कृत से नहीं, परन्तु प्रथम स्तर के प्राकृत से ही संस्कृत में और द्वितीय स्तर के प्राकृत में आये हैं। प्राकृत के अन्तर्गत तद्भव शब्द भी संस्कृत से प्राकृत में गृहीत न होकर प्रथम स्तर के प्राकृत से ही क्रमशः परिवर्तित होकर परवर्ती काल के प्राकृत में स्थान पाये हैं और संस्कृत व्याकरण-द्वारा नियन्त्रित होने से वे शब्द संस्कृत में अपरिवर्तित रूप में ही रह गये हैं। इसी तरह प्राकृत के अधिकांश देशी-शब्द भी वैदिक काल के मध्यदेश-भिन्न अन्यान्य प्रदेशों के आर्य-उपनिवेशों की प्राकृत-भाषाओं से ही बाद की प्राकृत-भाषाओं में आये हैं। इससे उन्होंने ( देशी शब्दों ने ) मध्यदेश के प्राकृत से उत्पन्न वैदिक और लौकिक संस्कृत में कोई स्थान नहीं पाया है। इस पर से यह सहज ही समझा जा सकता है कि प्राकृत ही संस्कृत भाषा का मूल है। अब इस जगह हम यह बताना चाहते हैं कि प्राकृत से न केवल वैदिक और लौकिक संस्कृत भाषाएँ उत्पन्न ही हुई हैं, बल्कि संस्कृत ने मृत होकर साहित्य-भाषा में परिणत होने पर भी अपनी अंग-पुष्टि के लिए प्राकृत से ही अनेक शब्दों का संग्रह किया है। ऋग्वेद आदि में प्रयुक्त वंक ( वक्र ), बहू ( वधू), मेह ( मेघ), पुराण (पुरातन ), तितउ (चालनी), उच्छेक ( उत्सेक), प्रभृति शब्द और लौकिक संस्कृत में प्रचलित तितउ (चालनी), आवृत्त ( भगिनीपति ), खुर (धुर), गोखुर ( गोक्षुर ), गुग्गुलु (गुल्गुलु ), छुरिका (क्षुरिका ), अच्छ (ऋक्ष ), कच्छ (कक्ष ), पियाल (प्रियाल ), गल्ल (गण्ड), चन्दिर ( चन्द्र), इन्दिर ( इन्द्र), शिथिल (लथ ), मरन्द ( मकरन्द ), किसल ( किसलय), हाला ( सुराविशेष), हेवाक ( व्यसन ), दाढा ( दंष्ट्रा), खिडक्तिका ( लघुद्वार, भाषा में खिड़की), जारुज ( जरायुज ), पुराण (पुरातन ) वगैरह शब्द प्राकृत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016080
Book TitlePaia Sadda Mahannavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas T Seth
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1986
Total Pages1010
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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