SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २. मध्यम पुरुष के एकवचन में आज्ञार्थ में इ उ और ए ३. भविष्यत्काल में प्रत्यय के पूर्व में स आगम होता है १. २. करेणु करेवि, करेविशु । ३. प्रत्यय की जगह एवं ४. ( ५६ ) होते हैं, यथा-- कुरु = करि, करु, करे । यथा- भविष्यति होस = कृदन्त तव्य - प्रत्यय के स्थान में इएर्ड, एवउं और एवा होता है; यथा कर्तव्य = करिएव्बउं, करेन्त्रउ, करेवा । वा के स्थान में इ, इउ, इवि श्रवि, एप्पि, एप्पिरगु, एवि, एविण 3 होते हैं; यथा कृत्वा = करि करिउ, करिवि, करवि, करेप्पि एप्प, एम्पि. ए एविए होते हैं। यथाकरे करण करा कर हि करेण्यि, करेपि करेवि, करेविशु । शीलाद्यर्थक तृ-प्रत्यय के स्थान में प्राय होता है; जैसे--कर्तृकरण, मारयितृ = मारण । तद्धित १. व और ता के स्थान में पण होता है; यथा -- देवत्व = देवप्पण, महत्त्व - वड्डप्पण । हम पहले यह कह आये हैं कि वैदिक और लौकिक संस्कृत के शब्दों के साथ तुलना करने पर जिस प्राकृत भाषा में वर्ण-लोप- प्रभृति परिवर्तन जितना अधिक प्रतीत हो, वह उतनी ही परवर्ती काल में उत्पन्न मानी जानी चाहिए। इस नियम के अनुसार, हम देखते हैं कि महाराष्ट्री प्राकृत में व्यञ्जनों का लोप सर्वापेक्षा अधिक है, इससे वह अपभ्रंशों का भिन्न अन्यान्य प्राकृत भाषाओं के पीछे उत्पन्न हुई है, ऐसा अनुमान किया जाता है परन्तु अपभ्रंश में उक्त नियम का व्यस्य देखने में आता है, क्योंकि भिन्न-भिन्न प्रदेशों की अपभ्रंश भाषाएँ यद्यपि महाराष्ट्री के बाद ही उत्पन्न हुई हैं तथापि महाराष्ट्री में जो व्यञ्जन वर्ण लोप देखा जाता है, अपभ्रंश में उसकी अपेक्षा अधिक नही, बल्कि कम ही वर्ण-लोप पाया जाता है और ऋ स्वर तथा संयुक्त रकार भी विद्यमान है । इस पर से यह अनुमान करना असंगत नहीं हैं कि वर्ण-लोप की गति ने महाराष्ट्री प्राकृत में अपनी चरम सीमा को पहुँच कर उसको (महाराष्ट्री को ) अस्थि आदर्श में गठन - माँस-पिण्ड की तरह स्वर-बहुल आकार में परिणत कर दिया। अपभ्रंश में उसकी प्रतिक्रिया शुरू हुई, और प्राचीन स्वर एवं व्यजनों को फिर स्थान देकर भाषा को भिन्न आदर्श में गठित करने की चेष्टा हुई। उस चेष्ठा का ही यह फल है कि. पिछले समय में संस्कृत भाषा का प्रभाव फिर प्रतिष्ठित होकर आधुनिक आर्य कथ्य भाषाएँ उत्पन्न हुई है। Jain Education International प्राकृत पर संकृत का प्रभाव जैन और बौद्धों ने संस्कृत भाषा का परित्याग कर उस समय की कथ्य भाषा में धर्मोपदेश को लिपिबद्ध करने को प्रथा प्रचलित की थी। इससे जो दो नया साहित्य भाषाओं का जन्म हुआ था, वे जैन सूत्रों की अर्धमागधी और बी-धर्मग्रन्थ की पालि भाषा है। परन्तु वे दो साहित्य भाषाएँ और अन्यान्य समस्त प्राकृत भाषा संस्कृत के प्रभाव को उल्लंघन नहीं कर सकी हैं। इस बात का एक प्रमाण तो यह है कि इन समस्त प्राकृत भाषाओं में संस्कृत भाषा के अनेक शब्द अविष रूप में गृहीत हुए हैं । ये शब्द तत्सम कहे जाते हैं । यद्यपि इन तत्सम शब्दों ने प्रथम स्तर की प्राकृत भाषाओं से ही संस्कृत में स्थान और रक्षण पाया था, तो भी यह स्वीकार करना ही होगा कि ये सब शब्द परवर्ती काल की प्राकृत भाषाओं में जो अपरिवर्तित रूप में व्यवहृत होते थे वह संस्कृत साहित्य का ही प्रभाव था । गाथा भाषा इसके अतिरिक्त, संस्कृत के दो प्रभाव से बौद्धों में एक मित्र भाषा उत्पन्न हुई थी महायान बौद्धों के महावैपुल्यसूत्र नामक कतिपय सूत्र प्रन्थ हैं उलितविस्तर, सद्धम-पुण्डरीक, चन्द्रप्रदीपसूत्र प्रभृति इसके अन्तर्गत हैं। इन ग्रंथों की "भाषा में अधिकांश शब्द तो संस्कृत के हैं ही, अनेक प्राकृत शब्दों के आगे भी संस्कृत की विभक्ति लगा कर उनको भी संस्कृत के अनुरूप किये गए हैं। पाश्चात्य विद्वानों ने इस भाषा को 'गाथा' नाम दिया है। परन्तु वहाँ पर यह कहना आवश्यक है कि इसका यह 'गाथा' नाम असंगत है, क्योंकि यह संस्कृत- मिश्रित प्राकृत का प्रयोग उक्त प्रधों के केवल पचांतों में ही नहीं, बल्कि गद्यांश में भी देखा जाता है। इससे इन ग्रंथों की भाषा को 'गाथा' न कहकर 'प्राकृत-मि-संस्कृत' या 'संस्कृत मिश्र प्राकृत अथवा संक्षेप में मिश्र भाषा ही कहना उचित है। डॉ. बनेफ और डॉ. राजेन्द्र लाल मित्र का मत है कि, 'संस्कृत भाषा, क्रमशः परिवर्तित होती हुई प्रथम गाथा भाषा के रूप में और बद के पालि-भाषा के आकार में परिणत हुई है। इस तरह गाथा भाषा संस्कृत और पालि को मध्यवर्ती For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016080
Book TitlePaia Sadda Mahannavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas T Seth
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1986
Total Pages1010
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy