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________________ सौरसेनी भाषा की उत्पत्ति' सूरसेन देश अर्थात् मथुरा प्रदेश से हुई हैं। वररुचि ने अपने व्याकरण में संस्कृत को ही सौरसेनी भाषा की प्रकृति अर्थात् मूल कहा है। किन्तु यह हम पहले ही प्रमाणित कर चुके हैं कि किसी प्राकृत भाषा की उत्पत्ति संस्कृत से नहीं हुई है। सुतरां, सौरसेनी प्राकृत का मूल भी प्रकृति वैदिक या लौकिक संस्कृत नहीं है। सौरसेनी और संस्कृत ये दोनों ही वैदिक युग में प्रचलित सूरसेन ___ अथवा मध्यदेश की कथ्य प्राकृत भाषा से ही उत्पन्न हुई हैं। संस्कृत भाषा पाणिनि-प्रभृति के व्याकरण द्वारा नियन्त्रित होने के कारण परिवर्तन-हीन मृत-भाषा में परिणत हुई। वैदिक काल की सौरसेनी ने प्राकृत-व्याकरण द्वारा नियन्त्रित न होने के कारण क्रमशः परिवर्तित होते हुए पिछले समय की सौरसेनी भाषा का आकार धारण किया। पिछले समय की यह सौरसेनी भी बाद में प्राकृत-व्याकरणों के द्वारा जकड़े जाने के कारण संस्कृत की तरह परिवर्तन-शून्य होकर मृत-भाषा में परिणत हुई है। अश्वघोष के नाटकों में जिस सौरसेनी भाषा के उदाहरण मिलते हैं वह अशोकलिपि की सम-सामयिक कही जा सकती है। भास के नाटकों की सौरसेनी का और जैन सौरसेनी का समय सम्भवतः ख्रिस्त की प्रथम समय या द्वितीय शताब्दी मालूम होता है। महाराष्ट्री भाषा के साथ सौरसेनी भाषा का जिस-जिस अंश में भेद है वह नीचे दिया जाता है। इसके सिवा महाराष्ट्री भाषा के जो लक्षण उसके प्रकरण में दिये जायँगे उनमें महाराष्ट्री के साथ सौरसेनी का लक्षण कोई भेद नहीं है। इन भेदों पर यह ज्ञात होता है कि अनेक स्थलों में महाराष्ट्री की अपेक्षा सौरसेनी का संस्कृत के साथ पार्थक्य कम और सादृश्य अधिक है। वर्ण-भेद १. स्वर-वर्गों के मध्यवर्ती असंयुक्त त और द के स्थान में द होता है; यथा-रजत = रमद, गदा = गदा । २. स्वरों के बीच असंयुक्त थ का ह और ष दोनों होते हैं। जैसे-नाथ = णाध, णाह । ३. य के स्थान में प्य और ब होता है; यथा-पाय = भग्य, मज सूर्य = सुग्य, सुब। नाम-विभक्ति १. पञ्चमी के एकवचन में दो और दु ये दो ही प्रत्यय होते हैं और इनके योग में पूर्व के अकार का दीर्घ होता है; यथाजिनात् = जिणादो, जिणादु। आख्यात १. ति और ते प्रत्ययों के स्थान में दि और दे होता है; जैसे-हसदि, हसदे, रमवि, रमदे । २. भविष्यकाल के प्रत्यय के पूर्व में स्सि लगता है; यथा-हसिस्सिदि, करिस्सिदि । सन्धि १. अन्त्य मकार के बाद इ और ए होने पर ए का वैकल्पिक आगम होता है; यथा—युक्तम इदम् = जुत्तं णिम, जुत्तमिम एवम् एतत् = एवं णेदं, एवमेदं । कृदन्त १. त्वा प्रत्यय के स्थान में इम, दूण और ता होते हैं; यथा-पठित्वा = पढिम, पढिदूण, पढित्ता । १. वन्नवणासूत्र के “सोत्तियमइया (?मई य) चेदी वीयभयं सिंधुसोवीरा । महुरा य सूरसेणा पावा भंगी य मासपुरिवट्टा" (पत्र ६१)। इस पाठ पर "चेदिषु शुक्तिकावतो, वीतभयं सिन्धुषु, सौवीरेषु मथुरा, सूरसेनेषु पापा, भङ्गे(? निषु मासपुरिवट्टा" इस तरह व्याख्या करते हुए प्राचार्य मलयगिरि ने सूरसेन देश की राजधानी पावा बतलाकर भाजकल के बिहार प्रदेश को ही सूरसेन कहा है। नेमिचन्द्रसूरि ने अपने प्रवचनसारोदारनामक ग्रंथ में पन्नवणासूत्र के उक्त पाठ को पविकल रूप में उद्धृत किया है। इसकी टीका में श्रीसिद्धसेनसूरि ने प्राचार्य मलयगिरि की उक्त व्याख्या को 'प्रतिव्यवहृत कहकर, उक्त मूल पाठ की व्याख्या इस तरह की है:-'शुक्कीमती नगरी चेदयो देशः, वीतभयं नमर सिन्धुसौवीरा जनपदः, मधुरा नगरी सूरसेनाख्यो देशः, पापा नगरी भङ्गयो देशः, मासपुरी नगरी वों देशः' (दे० ला संस्करण, पत्र ४४६)। २. प्राकृतप्रकाश ( १२, २)। www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only Jain Education International
SR No.016080
Book TitlePaia Sadda Mahannavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas T Seth
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1986
Total Pages1010
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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