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________________ ( 88 ) (६) अशोक - लिपि सम्राट् 'अशोक ने भारतवर्ष के भिन्न-भिन्न स्थानों में अपने धर्म के उपदेशों को शिलाओं में खुदवाये थे। ये सब शिलालेख उस समय में प्रचलित भिन्न-भिन्न प्रादेशिक भाषाओं में रचित हैं । भाषा साम्य की दृष्टि से ये सब शिलालेख ४४ प्रधानतः इन तीन भागों में विभक्त किये जा सकते हैं: (१) पंजाब के शिलालेख । इनकी भाषा संस्कृत के अनुरूप है। इनमें र का लोप नहीं देखा जाता । (२) पूर्व भारत के शिलालेख । इनकी भाषा का मागधी के साथ सादृश्य देखने में आता है। इनमें र के स्थान में सर्वत्र है । (३) पश्चिम भारत के शिलालेख । ये उज्जयिनी की उस भाषा में है जिसका पालि के साथ अधिक साम्य है । इन तीनों प्रकार के शिलालेखों के कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं जिन पर से इनका भेद आ सकता है । अच्छी तरह समझ में संस्कृत देवानांप्रियस्य कपर्दगिरि (पंजाब) देवानंप्रियस रणो धौलि (उड़ीसा) देवानंपियस लजिने लुखनि राज्ञः वृक्षाः शुश्रूषा सुश्रुषा मस्ति, नास्ति नास्ति इन शिलालेखों का समय ख्रिस्तपूर्व २५० वर्ष का है । इन शिलालेखों की भाषा की उत्पत्ति भगवान् महावीर की एवं सम्भवतः बुद्धदेव की उपदेश-भाषा से ही हुई है।' सुसूसा नाथि, नमि, नथा Jain Education International गिरनार (गुजरात) देवानंपियस रानो, रनो वच्छा (७) सौरसेनी संस्कृत नाटकों में प्राकृत गद्यांश सामान्य रूप से सौरसेनी भाषा में लिखा गया है । अश्वघोष के नाटकों में एक तरह की सौरसेनी के उदाहरण पाये जाते हैं, जो पालि और अशोकलिपि को भाषा के अनुरूप और निदर्शन पिछले काल के नाटकों में प्रयुक्त सौरसेनी की अपेक्षा प्राचीन है। भास के, कालिदास के और इनके बाद के अधिक नाटकों में सौरसेनी के निदर्शन देखे जाते हैं। वररुचि, हेमचन्द्र, क्रमदीश्वर, लक्ष्मीधर और मार्कण्डेय आदि के प्राकृत व्याकरणों में सौरसेनी भाषा के लक्षण और उदाहरण पाये जाते हैं । सुसुसा नास्ति दण्डी, रुद्रट और वाग्भट आदि संस्कृत के अलंकारिकों ने भी इस भाषा का उल्लेख किया है । भरत के नाट्यशास्त्र में सौरसेनी भाषा का उल्लेख हैं, उन्होंने नाटक में नायिका और सखियों के लिए इस भाषा विनियोग का प्रयोग बताया हैं । भरत ने विदूषक की भाषा प्राच्या कही हैं, परन्तु मार्कण्डेय के व्याकरण में प्राच्या भाषा के जो लक्षण दिये गये हैं। उनसे और नाटकों में प्रयुक्त विदूषक की भाषा पर से यह मालूम होता है कि सौरसेनी से इस भाषा प्राच्या भाषा सौरसेनी के (प्राच्या) का कुछ विशेष भेद नही हैं। इससे हमने भी प्रस्तुत कोष में उसका अलग उल्लेख न करके भन्तर्गत सौरसेनी में ही अन्तर्भाव किया हैं । दिगम्बर जैनों के प्रवचनसार, द्रव्यसंग्रह प्रभृति ग्रन्थ भी एक तरह की सौरसेनी भाषा में ही रचित हैं। यह भाषा श्वेताम्बरों की अर्धमागधी और प्राकृत-व्याकरणों में निर्दिष्ट सौरसेनी के मिश्रण से बनी हुई है। इस जैन सौरसेनी भाषा को 'जैन सौरसेनी' नाम दिया गया है। जैन सौरसेनी मध्ययुग की जैन महाराष्ट्री की अपेक्षा जैन अर्द्धमागधी से अधिक निकटता रखती है ओर मध्ययुग की जैन महाराष्ट्री से प्राचीन है । For Personal & Private Use Only १. हाल ही में डॉ० त्रिभुवनदास लहेरचंद ने अपने एक गुजराती लेख में अनेक प्रमाण मौर युक्तियों से यह सिद्ध किया है कि प्रशोक के शिलालेखों के नाम से प्रसिद्ध शिलालेख सम्राट् अशोक के नहीं, परन्तु जैन सम्राट् संप्रति के खुदवाये हुए हैं। २. See Dr. A. B. Keith's Sanskrt Drama, Page 87. ३. " नायिकानां सखीनां च सूरसेनाविरोधिनी" (नाट्यशास्त्र १७, ५१ ) । ४. " प्राच्या विदूषकादीनां (नास्वशास्त्र १७, ५१) । www.jainelibrary.org
SR No.016080
Book TitlePaia Sadda Mahannavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas T Seth
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1986
Total Pages1010
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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