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________________ ( ३७ ) लोक-भाषा के ही अर्थ में ही किया है। आचार्य दण्डी और हेमचन्द्र ही नहीं, बल्कि ख्रिस्त की नववीं शताब्दी के कवि राजशेखर', ग्यारहवीं शताब्दी के नमिसाधु', उन्नीसवीं शताब्दी के प्रेमचन्द्रतर्कवागीश प्रभृति प्रभूत जैन और जैनेतर विद्वानों ने इसी अर्थ में प्राकृत शब्द का प्रयोग किया है। इस तरह जब यह अभ्रान्त सत्य है कि प्राचीन काल से लेकर आजतक प्राकृत शब्द प्रादेशिक कथ्य भाषा के अर्थ में व्यवहृत होता आया है और इसका मुख्य और प्राचीन अर्थ साधारणतः सभी और विशेषतः कोई भी प्रादेशिक भाषा है, तब प्राचीन आचार्यों द्वारा भगवान महावीर की उपदेश-भाषा के और उनके समसामयिक शिष्य सुधर्मस्वामि-प्रणीत जैन सूत्रों की भाषा के ही अभिप्राय में प्रयुक्त किए हुए 'प्राकृत' शब्द का 'अर्ध मगध-प्रदेश (जहाँ भगवान महावीर और सुधर्मस्वामी का उपदेश और विचरण होना प्रसिद्ध है) की लोक-भाषा (अर्धमागधी) इस सुसंगत अर्थ को छोड़ कर मगध से सुदूरवर्ती प्रदेश 'महराष्ट्र (जहाँ न तो भगवान महावीर का और न सुधर्मस्वामी का ही उपदेश या विहार होना जाना गया है) की भाषा (महाराष्ट्री) यह असंगत अर्थ लगाना, अपनी हीन विवेचना-शक्ति का परिचय देना है। इसी सिलसिले में पंडितजी ने अनुयोगद्वार सूत्र की एक अपूर्ण गाथा उद्धृत की है। यदि उक्त पंडितजी अनुयोगद्वार की गाथा के पूर्वार्ध का यहाँ पर उल्लेख करने के पहले इस गाथा के मूल स्थान को ढूंढ पाते और वे प्राकृत शब्द से जिस भाषा (महाराष्ट्री) का ग्रहण करते हैं इसके और प्राचीन सूत्रों की अर्धमागधी भाषा के इतिहास को न जानते हुए भी सिर्फ उत्तरार्ध-सहित इस गाथा पर ही प्रकरण-संगति के साथ जरा गौर से विचार करने का कष्ट उठाते, तो हमारा यह विश्वास है कि वे कम से कम इस गाथा का यहाँ हवाला देने का साहस और अनुयोगद्वार के कर्त्ता पर अर्धमागधी के विस्मरण का व्यङ्ग-बाण छोड़ने की धृष्टता कदापि नहीं कर पाते। क्योंकि इस गाथा का मूल स्थान है तृतीय अंग-प्रन्थ जिसका नाम स्थानाङ्ग-सूत्र है। इसी स्थानाङ्ग-सूत्र के सम्पूर्ण स्वर-प्रकरण को अनुयोगद्वार-सूत्र में उद्धृत किया गया है जिसमें वह गाथा भी शामिल है। वह सम्पूर्ण गाथा इस तरह है: __सक्कता पागता चेव दुहा भणियो प्राहिया। सरमंडलम्मि गिज्जते पसत्या इसिभासिता।" इसका शब्दार्थ है-"संस्कृत और प्राकृत ये दो प्रकार की भाषाएँ कही गई हैं, गाये जाते स्वर-समूह (षड्ज-प्रभृति) में अलिभाषिता-आर्ष भाषा प्रशस्त है।" यहाँ पर प्रकरण है सामान्यतः गीत की भाषा का। वर्तमान समय की तरह उस समय भी सभी भाषाओं में गीत होते थे। इससे यहाँ पर इन सभी भाषाओं का निर्देश करना ही सूत्रकार को अभिप्रेत हैं जो उन्होंने संस्कृत-व्याकरण-संस्कार युक्त भाषा और प्राकृत-व्याकरण-संस्कार-रहित-लोक-भाषा इन दो मुख्य विभागों में किया है। इस तरह इस गाथा में पहले गीत की भाषाओं का सामन्य रूप से निर्देश कर बाद में इन भाषाओं में जो प्रशस्त है वह 'ऋषिभाषिता' इस विशेष रूप से बताई गई है। यदि यहाँ पर प्राकृत शब्द का 'प्रादेशिक लोक-भाषा' यह सामान्य अर्थ न लेकर पंडितजी के कथनानुसार 'महाराष्ट्री' यह विशेष अर्थ लिया जाय तो गीत की सभी भाषाओं का निर्देश, जो सूत्रकार को करना आवश्यक है, कैसे हो सकता है ? क्या उस समय अन्य लोक-भाषाओं में गीत होते ही न थे ? गीत का ठेका क्या संस्कृत और महाराष्टी इन दो भाषाओं को ही मिला हुआ था? यह कभी संभावित नहीं है। इसी गाथा के उत्तरार्ध के "पसत्था इसिभासिता" इस वचन से अर्धमागधी की सूचना ही नहीं, बल्कि उसका श्रेष्ठपन भी सूत्रकार ने स्पष्ट रूप में बताया है। इससे पंडितजी के उस कथन में कुछ भी सत्यांश नजर नहीं आता है, जो उनसे सूत्रकार के अर्धमागधी की अलग सूचना न करने के बारे में किया गया है। जैसे बौद्धसूत्रों की मागधी (पालि) से नाट्य-शास्त्र या प्राकृत-व्याकरणों में निर्दिष्ट मागधी भिन्न है वैसे जैन सूत्रों की अर्धमागधी से नाट्य-शास्त्र की या प्राकृत व्याकरणों की अर्थमागधी भी अलग है। इससे बौद्धसूत्रों की मागधी नाट्यशास्त्र या प्राकृत-व्याकरणों की मागधी से मेल न रखने के कारण जैसे महाराष्टी न कही जाकर मागधी कही जाती है वैसे जैन सूत्रों की अर्धमागधी भाषा भी नाट्य-शास्त्र या प्राकृत-व्याकरणों की अर्धमागधी से समान न होने की वजह से ही महाराष्टी न कही जाकर अर्धमागधी ही कही जा सकती है। १. 'परसो सक्कम-बषों पाउम-बंधोवि होइ सुउमारों (कर्पूरमजरी, अङ्क १)। २. 'सूरसेन्यपि प्राकृतभाषेव, तथा प्राकृतमेवापभ्रंशः' (काव्यालङ्कार-टिप्पण २, १२)। ३. सर्वासामेव प्राकृतभाषाणां'-(काव्यादर्ण-टोका १, ३३), 'तादृशोत्यनेन देशनामोपलक्षिताः सर्वा एव भाषाः प्राकृतसंशयोज्यन्त इति सूचितम्' (काव्यादर्श-टीका १, ३५) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016080
Book TitlePaia Sadda Mahannavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas T Seth
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1986
Total Pages1010
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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