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________________ प्रथम दलील के उत्तर में हमें यहाँ अधिक कहने की कोई आवश्यकता नहीं, इसी प्रकरण के अन्त में महाराष्ट्री से अर्धमागधी की विशेषताओं की जो संक्षिप्त सूची दी गई है वही पर्याप्त है। इसके अतिरिक्त डॉ बनारसीदास की 'अर्धमागधी रीडर', मुनि श्रीरत्नचन्द्रजी की 'जैन सिद्धान्त कौमुदी' और डॉ. पिशल का 'प्राकृत-व्याकरण' मौजूद है; जिनमें क्रमशः अधिकाधिक संख्या में अर्धमागधी की विशेषताओं का संग्रह है। आचार्य हेमचन्द्र के ही प्राकृत-व्याकरण के 'आर्षम्' सूत्र से, इसकी स्पष्ट और सर्व-भेद-माही व्यापक व्याख्या से और जगह-जगह किए हुए आर्ष के सोदाहरण उल्लेखों से दूसरी दलील की निर्मलता सिद्ध होती है। यदि आचार्य हेमचन्द्र द्वारा ही निर्दिष्ट की हुई दो-गक विशेषताओं के कारण चूलिकापैशाची अलग भाषा मानी जा सकती है, अथवा आठ-दस विशेषताओं को लेकर शौरसेनी, मागधी और पैशाची भाषाओं को भिन्न-भिन्न भाषा स्वीकार करने में आपत्ति नहीं की जा सकती, तो कोई वजह नही है कि उसी वैयाकरण के द्वारा प्रकारान्तर से अवच स्पष्ट रूप से बताई हई वैसी ही अनेक विशेषताओं के कारण आर्ष या अर्धमागधी भी भिन्न भाषा न कही जाय । तीसरी दलाल की जड़ यह भ्रान्त संस्कार है कि 'वही भाषा अर्धमागधी कही जाने योग्य हो सकती है जिसमें मागधी भाषा का आधा अंश हो'। इसी भ्रान्त संस्कार के कारण चौथी दलील में उद्धृत निशीथचूर्णि के अर्धमागधी के प्रथम लक्षण का सत्य और सीधा अर्थ भी उक्त पंडितजी की समझ में नहीं आया है। इस भ्रान्त संस्कार का निराकरण और निशीथचूर्णिकार द्वारा बताए हुए अर्धमागधी के प्रथम लक्षण का और उसके वास्तविक अर्थ का निर्देश इसी प्रकरण में आगे चलकर आर्धमागधी के मूल की आलोचना के समय किया जायगा, जिससे इन दोनों दलीलों के उत्तरों को यहाँ दुहराने की आवश्यकता नहीं है। पाँचवीं दलील भी प्राचीन आचार्यों के द्वारा जैन सूत्र-ग्रन्थों की भाषा के अर्थ में प्रयुक्त किए हुए 'प्राकृत' शब्द को 'महाराष्ट्री' के अर्थ में घसीटने से ही हुई है। मालूम पड़ता है, पंडितजी ने जैसे अपने व्याकरण में 'प्राकृत' शब्द को केवल महाराष्ट्री के लिए रिजर्व कर रखा है वैसे सभी प्राचीन आचार्यों के 'प्राकृत' शब्द को भी वे एकमात्र महाराष्ट्री के ही अर्थ में मुकरर किया हुआ समझ बैठे हैं। परन्तु यह समझ गलत है। प्राकृत शब्द का मुख्य अर्थ है प्रादेशिक कथ्य भाषा-लोक-भाषा। प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति भी वास्तव में इसी अथे से संगति रखती है यह हम पहले ही अच्छी तरह प्रमाणित कर चुके हैं। ख्रिस्त की षष्ठ शताब्दी के आचार्य दण्डी ने अपने काव्यादर्श में 'शौरसेनी च गौडी च लाटी चान्या च तादृशी। याति प्राकृतमित्येवं व्यवहारेषु संनिधिम् ॥' (१, ३५)। इन खले शब्दों में यही बात कही है। इससे भी यह स्पष्ट है कि प्राकृत शब्द मुख्यतः प्रादेशिक लोक-भाषा का ही वाचक है और इससे साधारणतः सभी प्रादेशिक कथ्य भाषाओं के अर्थ में इसका प्रयोग होता आया है। दण्डी के समय तक के सभी प्राचीन ग्रंथों में इसी अर्थ में प्राकृत शब्द का व्यवहार देखा जाता है। खुद दंडी ने भी महाराष्ट्री भाषा में प्राकृत शब्द के प्रयोग को 'प्रकृष्ट' शब्द से विशेषित करते हुए इसी बात का समर्थन किया है। दण्डी के महाराष्ट्री को 'प्रकृष्ट प्राकृत' कहने के बाद ही से विशेष प्रसिद्धि होने के कारण, महाराष्ट्री के अर्थ में 'प्रकृष्ट' शब्द को छोड़ कर केवल प्राकृत शब्द का भी प्रयोग हेमचन्द्र आदि, किन्तु दण्डी के पीछे के ही विद्वानों ने, कहीं कहीं किया है। पंडितजी ने वररुचि के समय से लेकर पीछले आचार्यों का महाराष्ट्री के ही अर्थ में प्राकृत शब्द का व्यवहार करने की जो बात उक्त टिप्पणी में ही लिखी है उससे प्रतीत होता है कि उन्होंने न तो वररुचि का ही व्याकरण देखा है और न उनके पीछे के आचार्यों के ही अन्थों का निरीक्षण करने की कोशिश की है, क्योंकि वररुचि ने तो 'शेष महाराष्ट्रीवत्' (प्राकृतप्रकाश १२, १२) कहते हुए इस अर्थ में महाराष्ट्री शब्द का ही प्रयोग किया है, न कि प्राकृत शब्द का । आचार्य हेमचन्द्र ने भी कुमारपालचरित में 'पाइमाहि भासाहि' (१,१) में बहुवचन का निर्देश कर और देशीनाममाला (१, ४) में 'विशेष' शब्दलगाकर 'प्राकृत' का प्रयोग साधारण १. 'आर्ष प्राकृतं बहुलं भवति । तदपि यथास्थानं दर्शयिष्यामः । आर्षे हि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते' (हे० प्रा० १, ३)। २. देखो, हेमचन्द्र-प्राकृत व्याकरण के १, ४६; १, ५७ १, ७६; १, ११, १, ११९ १,१५१, १, १७७१, २२८१ २५४, २, १७२, २१, २, ८६, २, १०१, २, १०४० २, १४६; २, १७४० ३, १६२९ मौर ४, २८७ सूत्रों की व्याख्या। ३. 'ऊपरना वधा उल्लेखोमां वपरायेलो 'प्राकृत शब्द प्राकृत भाषानो सूचक छ, अनुयोगद्वारमा 'प्राकृत' शब्द प्राकृत भाषाना अर्थमां वपरायेलो छे. (पृ. १३१ स०)। वैयाकरण वररुचिना समयथी तो ए शब्द ज अर्थमां वपरातो आव्यो छे, अने ए पछीना आचार्योए पण ए शब्दने एज अर्थमां वापरेलो छ, माटे कोईए नहीं ए शब्दने मरडवो नहीं।' (प्राकृतव्याकरण, प्रवेश, पूठ २६ टिप्पणी)। ४. 'महाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः' (काव्यादर्श १, ३४)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016080
Book TitlePaia Sadda Mahannavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas T Seth
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1986
Total Pages1010
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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