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________________ ( २४ ) ही प्राचीन भाषातत्वज्ञों में भी यह मत प्रचलित था यह निम्नोद्धृत कतिपय प्राचीन ग्रन्थों के अवतरणों से स्पष्ट प्रतीत होता है। रुद्रट-कृत काव्यालङ्कार के एक 'इलोक की व्याख्या में खिस्त की ग्यारहवीं शताब्दी के जैन-विद्वान् नमिसाध ने लिखा है कि: "प्राकृतेति । सकलजगज्जन्तूनां व्याकरणादिभिरनाहितसंस्कारः सहजो वचन-व्यापारः प्रकृतिः, तत्रः भवं सैव वा प्राकृतम् । 'पारिसवयणे सिद्ध देवाणं अद्धमागहा वाणी' इत्यादिवचनाद् वा प्राक् पूर्व कृतं प्राक्कृतं बाल-महिलादि-सुबोधं सकलभाषानिबन्धनभूतं वचनमुच्यते । मेघनिमुक्तजलमिवैकस्वरूपं तदेव च देशविशेषात् संस्कारकरणाच्च समासादितविशेष सत् संस्कृताद्युत्तरविभेदानाप्नोति । अत एव शास्त्रकृता प्राकृतमादौ निदिष्टं तदनु संस्कृतादीनि । पाणिन्यादिव्याकरणोदितशब्दलक्षणेन संस्करणात् संस्कृतमुच्यते ।" इस व्याख्या का तात्पर्य यह है कि-'प्रकृति शब्द का अर्थ है लोगों का व्याकरण आदि के संस्कारों से रहित स्वाभाविक वचन-व्यापार, उससे उत्पन्न अथवा वही है प्राकृत । अथवा 'प्राक् कृत' पर से प्राकृत शब्द बना है, 'प्राक् कृत' का अर्थ है 'पहले किया गया। बारह अंग-ग्रन्थों में ग्यारह अंग ग्रन्थ पहले किए गए हैं और इन ग्यारह अङ्ग-ग्रन्थों की भाषा मार्ष-वचन में-सूत्र में अर्धमागधी कही गई है जो बालक, महिला आदि को सुबोध-सहज-गम्य है और जो सकल भाषाओं का मूल है। यह अर्धमागधी भाषा ही प्राकृत है। यही प्राकृत, मेघ-मुक्त जल की तरह, पहले एक रूपवाला होने पर भी, देश-भेद से और संस्कार करने से भिन्नता को प्राप्त करता हुमा संस्कृत मादि प्रवान्तर विभेदों में परिणत हुआ है अर्थात अर्धमागधी प्राकृत से संस्कृत और अन्यान्य प्राकृत भाषामों की उत्पत्ति हुई है। इसी कारण से मूल ग्रन्थकार (रुद्रट) ने प्राकृत का पहले और संस्कृत आदि बाद में निर्देश किया है। पाणिन्यादि व्याकरणों में बताए हए नियमों के अनुसार संस्कार पाने के कारण संस्कृत कहलाती है।' "प्रकृत्रिमस्वादुपदैनं जनं जिनेन्द्र साक्षादिव पासि भाषितैः' (द्वात्रिंशद्वात्रिशिका १, १८) । "अकृत्रिमस्वादुपदा जैनी वाचमुपास्महे ।" (हेमचन्द्रकाव्यानुशासन, पृष्ठ १)। उक्त पद्यों में क्रमशः महाकवि सिद्धसेन दिवाकर और आचार्य हेमचन्द्र जैसे समर्थ विद्वानों का जिनदेव की वाणी को अत्रिम' और संस्कृत भाषा को 'कृत्रिम' कहने का भी रहस्य यही है कि प्राकृत जन-साधारण की मातृभाषा होने के कारण अकृत्रिम- स्वाभाविक है और संस्कृत भाषा व्याकरण के संस्कार-रूप बनावटीपन से पूर्ण होने के हेतु कृत्रिम है। १. “प्राकृतसंस्कृतमागधपिशाचभाषाश्च शौरसेनी च । षष्ठोऽत्र भूरिभेदो देशविशेषादपभ्रंशः ॥" (काव्यालंकार २, १२) । २. बारहवां अङ्ग-ग्रंथ, जिसका नाम दृष्टिवाद है और जिसमें चौदह पूर्व (प्रकरण) थे, संस्कृत भाषा में था। यह बहुत काल से लुप्त हो गया है । यद्यपि इसके विषयों का संक्षिप्त वर्णन समवायाङ्गसूत्र में है। "चतुदशापि पूर्वाणि संस्कृतानि पुराऽभवन् ॥११४॥ प्रज्ञातिशयसाध्यानि तान्युच्छिन्नानि कालतः । अधुनैकादशाङ्गयस्ति सुधर्मस्वामिभाषिता ।।११५॥ वालस्त्रीमूढमूर्खादिजनानुग्रहणाय सः । प्राकृतां तामिहाकार्षात्(प्रभावकचरित्र, पृ०६८-६९)। ३. "मुत्तण दिट्ठिवायं कालियउकालियंगसिद्धं तं । थीबालवायपत्थं पाययमुइयं जिणवरेहिं ॥" (प्राचारदिनकर में उद्धृत प्राचीन गाथा)। "बालस्त्रीमन्दमूर्खाणां नृणां चारित्रकांक्षिणाम् । अनुग्रहार्थ तत्त्वज्ञैः सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः॥" (दशवैकालिक टीका पत्र १.० में हरिभद्रसूरि द्वारा और काव्यानुशासन की टीका पृ० १ में प्राचार्य हेमचन्द्र द्वारा उद्धृत किया हुआ प्राचीन श्लोक)। ४. "प्रकृत्रिमाणि-प्रसंस्कृतानि, अत एव स्वादूनि मन्दधियामपि पेशलानि पदानि यस्यामिति विग्रहः" (काव्यानुशासनटीका)। भाचार्य हेमचन्द्र की 'प्रकृत्रिम' शब्द की इस स्पा व्याख्या से प्रतीत होता है कि उनका अपने प्राकृत-व्याकरण में प्राकृत की प्रकृति संस्कृत कहना सिद्धान्त-निरूपण के लक्ष्य से नहीं, परन्तु अपने प्राकृत-व्याकरण की रचना-शैली के उपलक्ष में है, क्योंकि सभी उपलब्ध प्राकृत-व्याकरणों की तरह हेमचन्द्र-प्राकृत-व्याकरण में भी संस्कृत पर से ही प्राकृत-शिक्षा की पद्धति प्रखत्यार की गई है और इस पद्धति में प्रकृति-मूल के स्थान में संस्कृत को रखना अनिवार्य हो जाता है । अथवा यह भी असम्भव नहीं है कि व्याकरणरचना के समय उनका यही सिद्धान्त रहा हो जो बाद में बदल गया हो और इस परिवर्तित सिद्धान्त का काव्यानुशासन में प्रतिपादन किया हो । काव्यानुशासन की रचना व्याकरण के बाद उन्होंने की है यह काव्यानुशासन की "शब्दानुशासनेऽस्माभिः साव्यो वाचो विवेचिताः" (पृष्ठ २) इस उक्ति से ही सिद्ध है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016080
Book TitlePaia Sadda Mahannavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas T Seth
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1986
Total Pages1010
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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