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________________ ( २५ ) केवल जैन विद्वानों में ही यह मत प्रचलित न था, ख्रिस्त की आठवीं शताब्दी के जैनेतर महाकवि वाक्पतिराज ने भी अपने 'गउडवहो' नामक महाकाव्य में इसी मत को इन स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया है : सयलाभो इमं वाया विसंति एतो य ति वायाओ । तिसमुचयति साराम्रो थिय जनाई ॥१३॥" अर्थात् इसी प्राकृत भाषा में समुद्र में ही प्रवेश करता है धौर समुद्र से बाहर होता है। वाक्पति के इस पद्य का ममं यही है कि प्राकृत भाषा की उत्पत्ति अन्य किसी भाषा से नहीं हुई है, बल्कि संस्कृत प्रादि सब भाषाएँ प्राकृत से ही उत्पन्न हुई हैं । सब भाषाएँ प्रवेश करती हैं और इस प्राकृत भाषा से ही सब भाषाएँ निर्गत हुई हैं; जल (श्रा कर) ( बाष्प रूप से) ही खिस्त की नयम शताब्दी के जैनेतर कवि राजशेखर ने भी अपने 'बालरामायण' में नीचे का श्लोक लिखकर यही मत प्रकट किया है। : "यद योनिः किल संस्कृतस्य गुहां जिह्वा कमोदते, यत्र थोपवावारिखि कटुर्भाषाक्षराणां रसः । गद्यं चूर्णंपदं पदं रतिपतेस्तत् प्राकृतं यद्वचस्तॉल्लाटॉल्ललिताङ्गि पश्य नुदती दृष्टेनिमेषव्रतम् ।।" (४८, ४६ ) । जैन और जैनेवर विद्वानों के उक्त वचनों से वह स्पष्ट है कि प्राचीन काल के भारतीय भाषातज्ञों में भी यह मत प्रबल रूप से प्रचलित था कि प्राकृत की उत्पत्ति संस्कृत भाषा से नहीं है । प्राकृत भाषा लौकिक संस्कृत से उत्पन्न नहीं हुई है इसका और भी एक प्रमाण है। वह यह कि प्राकृत के अनेक शब्द और प्रत्ययों का लौकिक संस्कृत की अपेक्षा वैदिक भाषा के साथ अधिक मेल देखने में आता है । प्राकृत भाषा साक्षाद्र. प से लौकिक संस्कृत से उत्पन्न होने पर वह कभी संभव नहीं हो सकता। वैदिक साहित्य में भी प्राकृत के अनुरूप अनेक शब्द और प्रत्ययों के प्रयोग विद्यमान हैं। इससे यह अनुमान करना किसी तरह असंगत नहीं है कि वैदिक संस्कृत और प्राकृत ये दोनों दी एक प्राचीन प्राकृत भाषा से उत्पन्न हुई हैं और यही इस सादृश्य का कारण है वैदिक भाषा और प्राकृत के सादृश्य के कतिपय उदाहरण हम नीचे उद्धृत करते हैं ताकि उक्त कथन की सत्यता में कोई संदेह नहीं हो सकता । वैदिक भाषा और प्राकृत में सादृश्य = १. प्राकृत में अनेक जगह संस्कृत कार के स्थान में उकार होता है, जैसे- वृन्द सुन्द, ऋतु = उड, पृथिवी = पुहवी; वैदिक साहित्य में भी ऐसे प्रयोग पाये जाते है, जैसे- कृत = कुठ (ऋग्वेद १, ४६, ४) । २. प्राकृत में संयुक्त वर्णवाले कई स्थानों में एक व्यञ्जन का लोप होकर पूर्व के ह्रस्व स्वर का दीर्घ होता है, जैसे- दुर्लभ, विजाम योसाम, स्पर्शफास वैदिक भाषा में भी वैसा होता है, यथा-दुर्लभ दूलभ (आवेद ४, १८), दुर्गाश दूजारा ( शुक्तः प्रातिशाख्य २ ४३)। = = - ३. संस्कृत व्यञ्जनान्त शब्दों के अन्त्य व्यञ्जन का प्राकृत में सर्वत्र लोप होता है, जैसे- तावत्ताव, यशस= जस वैदिक साहित्य में भी इस नियम का अभाव नहीं है, यथा-पश्चात्पचा ( तैत्तिरीयसंहिता २, ३, १४), नीचात् = नीचा ( तैत्तिरीयसंहिता १, २, १४ ) । = हा १०, ४, ११) उच्चात् उचा = ४. प्राकृत में संयुक्त र और य का लोप होता है, जैसे- प्रगल्भ = पगब्भ, श्यामा सामा: वैदिक साहित्य में भी यह पाया जाता है, यथा-अ- प्रगल्भ = अ-पगल्भ ( तैत्तिरीयसंहिता ४, ५, ६१ ); त्र्यच = त्रिच (शतपथब्राह्मण १, ३, ३, ३३ ) । ५. प्राकृत में संयुक्त वर्ण का पूर्व स्वर हस्व होता है, यथा- पात्र पत्र, रात्रिरति साध्यसम्म इत्यादि वैदिक भाषा में भी ऐसे प्रयोग हैं, जैसे रोदसीय रोदसिया (ऋग्वेद १००० १०) अमात्र अमत्र (वेद 1,16, Y) I Jain Education International = ६. प्राकृत में संस्कृत द का अनेक जगह ड होता है, जैसे-दण्ड = डण्ड, दंस = डंस, दोला= डोला; वैदिक साहित्य में भी ऐसे प्रयोग दुर्लभ नहीं है, जैसे- दुर्दभ = दूडभ ( वाजसनेयसंहिता ३, ३६), पुरोदास = पुरोडाश ( शुक्लप्रातिशाख्य ३, ४ ) । १. सकला इदं वाचो विशन्तीतश्च नियंन्ति वाचः । प्रायन्ति समुद्रमेव निर्य॑न्ति सागरादेव जलानि ॥ ६३ ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016080
Book TitlePaia Sadda Mahannavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas T Seth
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1986
Total Pages1010
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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