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________________ कइयावि जिणवरिंदा, पत्ता अयरामरं पहं दाउं । आयरिएहिं पवयणं, धारिजइ संपयं सयलं ॥ जिनेश्वर तो किसी समय मोक्ष-मार्ग प्ररूपित कर चले गये पर बाद में, आज तक उनके प्रवचन को आचार्यों ने ही सुरक्षित रखा है । -सार्थपोसहसज्झायसूत्र (११) बालाण जो उ सीसाणं, जीहाए उवलिंपए । न सम्ममग्गं गाहेइ, सो सूरी जाण वेरियो। जो आचार्य नवदीक्षित शिष्यों को लाड़-प्यार में रखता है, उन्हें सन्मार्ग पर स्थिर नहीं करता है—ऐसा आचार्य अपने शिष्यों का गुरु नहीं अपितु शत्रु है। ___-गच्छाचार-प्रकीर्णक ( १७ ) स एव भव्वसत्ताणं, चक्खुभूय विआहिए। दंसेइ जो जिणुहि अणुट्टाणं जहट्ठिअं॥ जो आचार्य भव्य प्राणियों को वीतराग भगवान का यथार्थ अनुष्ठान-मार्ग दिखाता है, वह उनके लिए चक्षुभूत होता है। - गच्छाचार-प्रकीर्णक ( २६ ) तित्थयरसमो सूरी, सम्मं जो जिणमयं पयासेइ । आणं अइक्कमंतो सो, कापुरिसो न सप्पुरिसो। जो आचार्य वीतराग निर्दिष्ट सच्चे मार्ग का संसार में सर्वव्यापी प्रचार करता है वह तीर्थंकर के सदृश माना जाता है और जो आचार्य भगवान की आज्ञा का न तो स्वयं सम्यक्तया पालन करता है और न ही यथार्थ रूप से वर्णन करता है, वह सत्पुरुषों की कोटि में नहीं गिना जा सकता। -गच्छाचार-प्रकीर्णक ( २७) भट्ठायारो सूरी, भट्ठायाराणुविक्खओ सूरी। उम्मग्गठिओ सूरी, तिन्निवि मग्गं पणासंति ॥ तीन प्रकार के आचार्य, भगवान के मार्ग को दूषित करते हैं१. वह आचार्य जो स्वयं आचार-भृष्ट है। २. वह आचार्य जो स्वयं आचार भ्रष्ट नहीं, परन्तु अपने गच्छ के आचारभ्रष्टों की उपेक्षा करता है अर्थात् उनका सुधार नहीं करता। ra Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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