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________________ ३. जो आचार्य भगवान् की आज्ञा के विरुद्ध प्ररूपण तथा आचरण करता है । -गच्छाचार- प्रकीर्णक (२८) उम्मग्गठिए सम्मग्ग-नासए जो उ सेवए सूरी । पाडेइ संसारे ॥ निअमेणं सो गोयम ! अपं जो आचार्य उन्मार्गगामी है और सन्मार्ग का लोप कर रहा है, ऐसे आचार्य की सेवा करनेवाला शिष्य निश्चय से संसार - समुद्र में गोते खाता है । - गच्छाचारर प्रकीर्णक (२६) आणातवो आणाइसंजमो, तहय दाणमाणाए । आणारहिओ धम्मो, पलालपूलव्व पडिहाई ॥ आशा में तप है, आज्ञा में संयम है और आज्ञा में ही दान है । आज्ञा-रहित धर्म को ज्ञानी पुरुष धान्य रहित घास लेवत् छोड़ देता है । -संबोधसत्तरी ( ३२ ) आज्ञा जो जाणइ अप्पाणं, अप्पाणं सो सुहाणं न हु कामी । पत्तमि कप्परुक्खे, रूक्खे किं पत्थणा असणे ॥ आत्म-दर्शन जो आत्मा को जानता है, वह सांसारिक सुखों का कामी नहीं होता । भला, जिसे कल्पवृक्ष प्राप्त हो गया है, क्या वह अन्य वृक्ष की प्रार्थना भी करेगा ? Jain Education International 2010_03 - आत्मावबोधकुलक ( ४ ) तेसि दूरे सिद्धि, रिद्धी रणरणयकारणं तेसिं । सिमप्पूणा आसा, जेसि अप्पा न विन्नाओ ॥ जिसने आत्मा का दर्शन नहीं किया, उसे जाना नहीं, उसकी आशाएँ [ ४६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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