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________________ आचार्य जह दीवा दीवसयं, पइप्पए सो य दिप्पए जीवो।। दीवसमा आयरिया, दिप्पंति परं च दीवेति ॥ आचार्य दीपक के समान होते हैं जो स्वयं प्रकाशमान होते हैं और दूसरों को भी प्रकाशित करते हैं । -उत्तराध्ययननियुक्ति (८) पंचमहव्वयतुंगा तक्कालिय-सपरसमय-सुदधारा णाणागुणगणभरिया, आयरिया। आचार्य पञ्च महाव्रत ( अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य ) से समुन्नत, तत्कालीन स्वसमय और परसमय श्रुत के धारी-ज्ञाता तथा नाना गुणसमूह से परिपूर्ण होते हैं। -तिलोयपण्णति ( १/३) राग-होस विमुक्को, सीयघरसमो य आयरिओ। राग-द्वेष-विमुक्त आचार्य शीतगृह के समान है। -निशीथभाष्य ( २७६४) जत्थेव धम्मायरियं पासेजा, तत्थेव वंदिजा नमंसिज्जा । जहाँ कहीं अपने धर्माचार्य दिखाई दे, वहीं पर उन्हें वन्दन-नमन करना चाहिये। -राजप्रश्नीय (४/७६ ) पडिरूवो तेयस्सि, जुगप्पहाणागमो महुरवक्को । गम्भीरो धिइमंतो, उवएसपरो य आयरिओ ।। जो तीर्थंकर गणधरों के प्रतिनिधि-स्वरूप वर्तमान काल में सबसे बड़े श्रुतज्ञाता, मधुर भाषी, तेजस्वी, युगप्रवरागम गम्भीर विचारवाले बुद्धिमान और उपदेश देने में समर्थ होते हैं, वे ही आचार्य हैं । -सार्थपोसहसज्झायसूत्र (6) [ ४७ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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