SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अज्झत्थ विसोहीए, उवगरणं बाहिरं परिहरंतो। अप्परिग्गही त्ति भणिओ, जिणेहिं तिलोक्कदरिसीहि ॥ जो साधक बाह्य उपकरणों को अध्यात्म-विशुद्धि के लिए धारण करता है, उसे त्रिलोकदर्शी जिनेश्वर देवों ने अपरिग्रही ही कहा है । -ओघनियुक्ति (७४५ ) अत्थो मूलं अणत्थाणं । अर्थ तो अनर्थ का मूल है । -मरणसमाधि (६०३) गंथोऽगंथो व मओ मुच्छा मुच्छाहि निच्छयओ। निश्चय दृष्टि से विश्व की हरेक वस्तु परिग्रह भी है और अपरिग्रह भी। यदि मूर्छा है तो परिग्रह है एवं यदि मृच्छी नहीं है तो अपरिग्रह है । ---विशेषावश्यकभाष्य ( २५७३) परिगहरहिओ निरायारो। जो परिग्रह रहित है, वह निरागार है, निर्दोष है । -सूत्रपाहुड़ ( १६) गाहेण अप्पगाहा, समुद्दसलिले सचेल-अत्थेण । जिस प्रकार सागर के अथाह जल में से अपने वस्त्र धोने योग्य ही जल ग्रहण किया जाता है, उमी प्रकार ग्राह्य वस्तु में से भी आवश्यकतानुसार ही ग्रहण करना चाहिये। -सूत्र पाहुड़ (२७) आयाणं नरयं । परिग्रह तो नरक है। -उत्तराध्ययन (६/७) धणधन्नपेसवग्गेसु, परिग्गहविवज्जणं । सव्वारंभ परिच्चाओ, निम्ममत्तं सुदुक्करं ॥ धन-धान्य और प्रेष्य-वर्ग के परिग्रहण का वर्जन करना, सब आरम्भों और ममत्व का त्याग करना बहुत ही कठिन कार्य है। - उत्तराध्ययन ( १६/२६) [ १६ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016070
Book TitlePrakrit Sukti kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJayshree Prakashan Culcutta
Publication Year1985
Total Pages318
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy